100 रुपए की रिश्वत, 39 साल बाद कोर्ट ने कहा- तुम निर्दोष हो…घर-परिवार, नौकरी सब हो चुका बर्बाद

punjabkesari.in Tuesday, Sep 23, 2025 - 09:03 PM (IST)

नेशनल डेस्कः 83 वर्षीय जागेश्वर प्रसाद अवधिया के लिए जीवन एक लंबी, दर्दनाक और अन्यायपूर्ण यात्रा बन गया — एक ऐसी यात्रा जिसकी शुरुआत एक झूठे भ्रष्टाचार के आरोप से हुई और जिसका अंत चार दशक बाद हाईकोर्ट द्वारा बरी किए जाने से हुआ। लेकिन सवाल यह है कि क्या यह इंसाफ अब किसी काम का है, जब पूरी ज़िंदगी इसके बोझ तले दबकर बर्बाद हो चुकी हो?

1986 की घटना जिसने सब कुछ बदल दिया

साल 1986 में जागेश्वर प्रसाद मध्य प्रदेश स्टेट रोड ट्रांसपोर्ट कॉर्पोरेशन (MPSRTC) के रायपुर कार्यालय में बिल सहायक के पद पर कार्यरत थे। एक सहकर्मी अशोक कुमार वर्मा ने जबरन उनका बकाया बिल पास करवाने का दबाव डाला, लेकिन जागेश्वर ने नियमों का पालन करते हुए इनकार कर दिया।

इसके बाद वर्मा ने पहले 20 रुपये की रिश्वत देने की कोशिश की, जिसे जागेश्वर ने लौटा दिया। लेकिन 24 अक्टूबर 1986 को वर्मा दोबारा आया और 100 रुपये (दो 50-50 के नोट) जबरदस्ती उनकी जेब में ठूंस दिए। उसी समय पहले से तैयार बैठी विजिलेंस टीम ने छापा मारकर उन्हें गिरफ्तार कर लिया।

जागेश्वर का कहना है कि यह सब एक सोची-समझी साजिश थी। न कोई रिश्वत मांगी गई थी, न ली गई थी — लेकिन फिर भी उन्हें घूसखोर बना दिया गया।

 परिवार पर टूटा पहाड़

गिरफ्तारी के बाद से जागेश्वर की ज़िंदगी पटरी से उतर गई।

  • 1988 से 1994 तक सस्पेंड रहे।

  • फिर उन्हें रीवा ट्रांसफर कर दिया गया।

  • आधा वेतन, कोई प्रमोशन नहीं, और परिवार की हालत खस्ता।

उनकी पत्नी मानसिक तनाव में रहने लगीं और अंततः बीमार होकर चल बसीं। उनके छोटे बेटे नीरज अवधिया, जो उस समय केवल 12 साल के थे, बताते हैं: "लोग हमें रिश्वतखोर का परिवार कहते थे। स्कूल में बच्चे बात नहीं करते थे। कई बार फीस नहीं भर पाने पर स्कूल से निकाला गया।" आज नीरज 50 साल के हैं, स्वास्थ्य समस्याओं से जूझ रहे हैं, अविवाहित हैं और पूरा परिवार सरकारी राशन पर निर्भर है।

 लंबी कानूनी लड़ाई और आखिरकार जीत

2004 में ट्रायल कोर्ट ने जागेश्वर को एक साल की सजा और ₹1000 जुर्माना सुनाया। लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और हाईकोर्ट में अपील की। 2025 में छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट के जस्टिस बी.डी. गुरु की बेंच ने फैसला सुनाते हुए उन्हें पूरी तरह निर्दोष घोषित कर दिया। अदालत ने कहा: "प्रोसिक्यूशन यह साबित नहीं कर सका कि रिश्वत मांगी या ली गई थी। कोई ठोस गवाह या दस्तावेज मौजूद नहीं थे।" अदालत ने 1947 और 1988 के भ्रष्टाचार कानूनों में अंतर को भी उजागर किया और ट्रायल कोर्ट का फैसला पलट दिया।

लेकिन न्याय किस कीमत पर?

आज 83 साल के जागेश्वर रायपुर के अवधिया पारा में 90 साल पुराने एक जर्जर पुश्तैनी मकान में रहते हैं। उनके पास पेंशन नहीं है, संपत्ति नहीं है, सिर्फ कुछ पुरानी फाइलें और दस्तावेज हैं, जो उनके संघर्ष की निशानी हैं। जागेश्वर कहते हैं: "मैंने ईमानदारी से नौकरी की, लेकिन एक झूठे आरोप ने मेरा सब कुछ छीन लिया। अब बस सरकार से यही मांग है कि मुझे मेरी बकाया पेंशन, सस्पेंशन के दौरान का वेतन और थोड़ी आर्थिक सहायता दी जाए, ताकि बचे हुए दिन चैन से कट जाएं।"

 बेटे नीरज की अपील

नीरज कहते हैं: "पापा का नाम तो अब साफ हो गया, लेकिन हमारा बचपन, हमारी पढ़ाई, हमारी खुशियाँ कोई वापस नहीं ला सकता। सरकार को चाहिए कि इस अन्याय की भरपाई करे।"

एक बड़ा सवाल: क्या देरी से मिला न्याय, न्याय होता है?

विशेषज्ञ मानते हैं कि न्यायिक प्रक्रिया में देरी अपने आप में एक प्रकार का अन्याय है। झूठे आरोपों से लोगों की सामाजिक प्रतिष्ठा, आर्थिक स्थिति और मानसिक स्वास्थ्य पूरी तरह बर्बाद हो सकता है।

ऐसे मामलों में सरकार को चाहिए कि:

  • मुआवज़ा (compensation) दे,

  • त्वरित न्याय की गारंटी सुनिश्चित करे,

  • और पीड़ितों को पुनर्वास की सुविधा दे।


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Content Writer

Pardeep

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