मानव जीवन इंद्रिय तृप्ति के लिए नहीं
punjabkesari.in Friday, Nov 06, 2015 - 05:20 PM (IST)

गीता व्याख्या अध्याय (4)
श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप व्याख्याकार : स्वामी प्रभुपाद अध्याय 4 (दिव्यज्ञान)
श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति।
शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति ।। 26।।
श्रोत-आदीनि—श्रोत्र आदि; इन्द्रियाणि—इंद्रियां; अन्ये—अन्य; संयम—संयम की; अग्निषु—अग्नि में; जुह्वति—अॢपत करते हैं; शब्द-आदीन्—शब्द आदि; विषयान्—इंद्रिय तृप्ति के विषयों का; अन्ये—दूसरे; इंद्रिय—इंद्रियों की; अग्निषु—अग्नि में; जुह्वति—यजन करते हैं।
अनुवाद : इनमें से कुछ (विशुद्ध ब्रह्मचारी) श्रवणादि क्रियाओं तथा इंद्रियों को मन की नियंत्रण रूपी अग्नि में स्वाहा कर देते हैं तो दूसरे लोग (नियमित गृहस्थ) इंद्रिय विषयों को इंद्रियों की अग्नि में स्वाहा कर देते हैं।
तात्पर्य : मानव जीवन के चारों आश्रमों के सदस्य-ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यासी पूर्णयोगी बनने के निमित्त हैं। मानव जीवन पशुओं की भांति इंद्रिय तृप्ति के लिए नहीं बना है, अतएव मानव जीवन के चारों आश्रम इस प्रकार व्यवस्थित हैं कि मनुष्य आध्यात्मिक जीवन में पूर्णता प्राप्त कर सके। ब्रह्मचारी सदैव भगवान् के यश के कीर्तन तथा श्रवण में लगा रहता है। इसी प्रकार से गृहस्थ भी जिन्हें इंद्रियतृप्ति की सीमित छूट है, बड़े ही संयम से इन कार्यों को पूरा करते हैं।
(क्रमश:)