Vivekananda's Chicago Speech: ये है वो ऐतिहासिक भाषण, जो 11 सितम्बर 1893 को स्वामी विवेकानंद ने शिकागो की विश्व धर्म संसद में दिया था

punjabkesari.in Thursday, Sep 11, 2025 - 02:45 PM (IST)

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Swami Vivekananda speech in Chicago summary: 12 जनवरी, 1863 को कोलकाता में जन्मे नरेंद्रनाथ आगे चलकर स्वामी विवेकानंद के नाम से प्रसिद्ध हुए। स्वामी विवेकानंद ने 25 साल की आयु में गेरुआ वस्त्र धारण कर लिया था और पैदल ही पूरे भारत की यात्रा पर निकल गए। इसके बाद 31 मई, 1893 को विवेकानंद मुम्बई से विदेश यात्रा पर निकले और सबसे पहले जापान पहुंचे।

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Vivekananda's Chicago Speech: जापान में उन्होंने नागासाकी, ओसाका और योकोहामा समेत कई जगहों का दौरा किया। जापान के बाद स्वामी विवेकानंद चीन और कनाडा से होते हुए अमरीका के शिकागो पहुंच गए। 3 साल तक उन्होंने अमरीका और इंगलैंड में वेदांत दर्शन और धर्म का प्रचार किया और फिर भारत लौटकर रामकृष्ण मठ तथा रामकृष्ण मिशन की स्थापना की। पश्चिम की दूसरी संक्षिप्त यात्रा के बाद 4 जुलाई, 1902 को उनका निधन हो गया।

विवेकानंद की जब भी बात होती है तो अमरीका के शिकागो की धर्म संसद में 11 सितम्बर, 1893 को दिए उनके भाषण की चर्चा जरूर होती है।

इस भाषण में उन्होंने दर्शाया कि भारत केवल एक देश नहीं, बल्कि सहिष्णुता और अध्यात्म की भूमि है। उनका भाषण इतना ओजस्वी था कि पूरा सभागार तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। उन्होंने अपने भाषण की शुरुआत अमरीका के लोगों को ‘भाइयो और बहनो’ कहकर की। यह वह भाषण है, जिसने पूरी दुनिया के सामने भारत को एक मजबूत छवि के साथ पेश किया।

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पेश हैं उस भाषण की खास बातें-
अमरीकी भाइयो और बहनो, आपने जिस स्नेह के साथ मेरा स्वागत किया है, उससे मेरा दिल भर आया है। मैं दुनिया की सबसे पुरानी संत परंपरा और सभी धर्मों की जननी की तरफ से धन्यवाद देता हूं। सभी जातियों और सम्प्रदायों के लाखों-करोड़ों हिंदुओं की तरफ से आपका आभार व्यक्त करता हूं। मैं इस मंच पर बोलने वाले कुछ वक्ताओं का भी धन्यवाद करना चाहता हूं, जिन्होंने यह जाहिर किया कि दुनिया में सहिष्णुता का विचार पूरब के देशों से फैला है।

मुझे गर्व है कि मैं उस धर्म से हूं, जिसने दुनिया को सहिष्णुता और सार्वभौमिक स्वीकृति का पाठ पढ़ाया है। हम सिर्फ सार्वभौमिक सहिष्णुता पर ही विश्वास नहीं करते, बल्कि सभी धर्मों को सच के रूप में स्वीकार करते हैं।

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मुझे गर्व है कि मैं उस देश से हूं, जिसने सभी धर्मों और सभी देशों के सताए गए लोगों को अपने यहां शरण दी। मुझे गर्व है कि हमने अपने दिल में इसराइल की वे पवित्र यादें संजो रखी हैं, जिनमें उनके धर्मस्थलों को रोमन हमलावरों ने तहस-नहस कर दिया था और फिर उन्होंने दक्षिण भारत में शरण ली।

मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूं, जिसने पारसी धर्म के लोगों को शरण दी और लगातार अब भी उनकी मदद कर रहा है।

मैं इस मौके पर वह श्लोक सुनाना चाहता हूं जो मैंने बचपन से याद किया और जिसे रोज करोड़ों लोग दोहराते हैं- ‘‘जिस तरह अलग-अलग जगहों से निकली नदियां, अलग-अलग रास्तों से होकर आखिरकार समुद्र में मिल जाती हैं, ठीक उसी तरह मनुष्य अपनी इच्छा से अलग-अलग रास्ते चुनता है। ये रास्ते देखने में भले ही अलग-अलग लगते हैं, लेकिन ये सब ईश्वर तक ही जाते हैं।’’

मौजूदा सम्मेलन, जो कि आज तक की सबसे पवित्र सभाओं में से है, वह अपने आप में गीता में कहे गए इस उपदेश इसका प्रमाण है- ‘‘जो भी मुझ तक आता है, चाहे कैसा भी हो, मैं उस तक पहुंचता हूं। लोग अलग-अलग रास्ते चुनते हैं, परेशानियां झेलते हैं लेकिन आखिर में मुझ तक पहुंचते हैं।’’

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सांप्रदायिकता, कट्टरता और इसके भयानक वंशजों के धार्मिक हठ ने लंबे समय से इस खूबसूरत धरती को जकड़ रखा है। उन्होंने इस धरती को हिंसा से भर दिया है और कितनी ही बार यह धरती खून से लाल हो चुकी है। न जाने कितनी सभ्याताएं तबाह हुईं और कितने देश मिटा दिए गए।

यदि ये खौफनाक राक्षस नहीं होते तो मानव समाज कहीं ज्यादा बेहतर होता, जितना कि अभी है लेकिन उनका वक्त अब पूरा हो चुका है। मुझे उम्मीद है कि इस सम्मेलन का बिगुल सभी तरह की कट्टरता, हठधर्मिता और दुखों का विनाश करने वाला होगा। चाहे वह तलवार से हो या फिर कलम से।

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Content Writer

Niyati Bhandari

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