स्वामी प्रभुपाद: इस प्रकार व्यक्ति अपने समस्त विगत कर्मों के फल से निवृत्त हो जाता है
punjabkesari.in Sunday, Jun 16, 2024 - 08:42 AM (IST)
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प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम्।
उपैति शान्तरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम्॥ 6.27॥
अनुवाद एवं तात्पर्य : जिस योगी का मन मुझमें स्थिर रहता है, वह निश्चय ही दिव्य सुख की सर्वोच्च सिद्धि प्राप्त करता है। वह रजोगुण से परे हो जाता है, वह परमात्मा के साथ अपनी गुणात्मक एकता को समझता है और इस प्रकार अपने समस्त विगत कर्मों के फल से निवृत्त हो जाता है।
ब्रह्मभूत वह अवस्था है, जिसमें भौतिक कल्मष से मुक्त होकर भगवान की दिव्य सेवा में स्थित हुआ जाता है। मद्भक्तिं लभते पराम् (भगवद्गीता 18.54)।
जब तक मनुष्य का मन भगवान के चरण कमलों में स्थिर नहीं हो जाता, तब तक कोई ब्रह्मरूप में नहीं रह सकता।
सवै मन: कृष्णपदारविंदयो:। भगवान की दिव्य प्रेमाभक्ति में निरंतर प्रवृत्त रहना या कृष्णभावनामृत में रहना वस्तुत: रजोगुण तथा भौतिक कल्मष से मुक्त होना है।