स्वामी प्रभुपाद: मन मित्र भी है और शत्रु भी

punjabkesari.in Sunday, Mar 03, 2024 - 08:13 AM (IST)

शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ

उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्। 
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मन:॥6.5॥

अनुवाद एवं तात्पर्य : मनुष्य को चाहिए कि अपने मन की सहायता से अपना उद्धार करे और अपने को नीचे न गिरने दे। वह मन बद्धजीव का मित्र भी है और शत्रु भी।

PunjabKesari Swami Prabhupada

प्रसंग के अनुसार आत्मा शब्द का अर्थ शरीर, मन तथा आत्मा होता है। योगपद्धति में मन तथा आत्मा का विशेष महत्व है। चूंकि मन ही योगपद्धति का केंद्र बिंदू है, अत: इस प्रसंग में आत्मा का तात्पर्य मन होता है। योगपद्धति  का  उद्देश्य  मन  को  रोकना  तथा  इंद्रिय  विषयों के प्रति आसक्ति से हटाना है। यहां पर इस बात पर बल दिया गया है कि मन को इस प्रकार प्रशिक्षित किया जाए कि वह बद्धजीव को अज्ञान के दलदल  से निकाल सके।

PunjabKesari Swami Prabhupada

इस जगत में मनुष्य मन तथा इंद्रियों के द्वारा प्रभावित होता है। वास्तव में शुद्ध आत्मा इस संसार में इसीलिए फंसा हुआ है क्योंकि मन मिथ्या अहंकार में लगकर प्रकृति के ऊपर प्रभुत्व जताना चाहता है। अत: मन को इस प्रकार प्रशिक्षित करना चाहिए कि वह प्रकृति की तड़क-भड़क से आकृष्ट न हो और इस तरह बद्धजीव की रक्षा की जा सके।

मनुष्य को इंद्रिय विषयों में आकृष्ट होकर अपने को पतित नहीं करना चाहिए। जो जितना ही इंद्रिय विषयों के प्रति आकृष्ट होता है, वह उतना ही इस संसार में फंसता जाता है। अपने को विरत करने का सर्वोत्कृष्ट साधन यही है कि मन को सदैव कृष्णभावनामृत में व्यस्त रखा जाए।

PunjabKesari Swami Prabhupada


सबसे ज्यादा पढ़े गए

Content Editor

Prachi Sharma

Recommended News

Related News