जो मनुष्य रविवार को लोलार्क सूर्य का दर्शन करता है, उसे कोई दुख नहीं होता

punjabkesari.in Saturday, Mar 31, 2018 - 11:02 AM (IST)

उदये ब्रह्मणो रूपं मध्याह्ने तु महेश्वर:। अस्तकाले स्वयं विष्णुस्त्रिमूर्तिश्च दिवाकर:॥

रात्रि की बड़ी बहन, आकाश की बेटी, वरुण की भगिनी, स्वर्ग की दुहिता ऊषा सुंदरी एक युवती की भांति प्रकाशमय नित्य नवीन परिधान पहने हुए सारे प्राणी समूह को जगाती है। पैर वालों को अपने-अपने काम पर भेजती है तथा पर वाले पक्षियों को आकाश में विचरण करने के लिए प्रेरित करती है। वह अपने आराध्य भगवान सूर्य का मार्ग प्रशस्त करती है।


ऋषिगण इसी काल में अपनी मुक्ति का मार्ग ढूंढते हैं। एक ऋषि ऊषा से प्रार्थना करता है कि, ‘‘यदि आप हमें परमात्मा का दर्शन न करा सकीं तो भला दूसरा कौन करा सकता है?’’


सुदूर क्षितिज पर विराजमान-सविता भगवान् की स्वर्णिम छटा किसके मन को आह्लादित नहीं करती। भगवान् सविता का बालरूप-अरुणोदयकाल ऐसा प्रतीत होता है मानो पूर्व दिशा की गोद में स्थित मार्तण्डशिशु अपनी मधुर मुस्कान से सारे संसार को मुग्ध करता हुआ किरणों के बहाने से पृथ्वी पर चलने अर्थात चराचर जगत को कार्य करने की प्रेरणा दे रहा हो।


जगत् की समस्त घटनाएं तो सूर्यदेव का ही लीला विलास हैं। एक ओर जहां भगवान् सूर्य अपनी कर्म सृष्टि रचना की लीला से प्रात:काल में जगत को संजीवनी प्रदान कर प्रफुल्लित करते हैं तो वहीं दूसरी ओर मध्याह्नकाल में स्वयं ही अपने महेश्वर स्वरूप से तमोगुणी लीला करते हैं। मध्याह्नकाल में आप अपनी ही प्रचंड रश्मियों के द्वारा शिव रूप से सम्पूर्ण दैनिक कर्म-सृष्टि की रजोगुण रूपी कालिमा का शोषण करते हैं।


जिस प्रकार परमात्मा अपनी ही बनाई सृष्टि का आवश्यकतानुसार यथासमय अपने में ही विलय करते हैं, ठीक उसी प्रकार भगवान् आदित्य मध्याह्न काल में अपनी ही रश्मियों द्वारा महेश्वर रूप से सृष्टि के दैनिक विकारों को शोषित कर कर्म-जगत को हृष्ट-पुष्ट, स्वस्थ और निरोग बनाते हैं। जगत् कल्याण के लिए भगवान सूर्य की यह दैनिक विकार शोषण की लीला ही भगवान् नीलकंठ के हलाहल पान का प्रतीक है।


दिन भर सारे जगत में प्रकाश और आनंद बिखेर कर सांध्यवेला में अस्तांचल की ओर जाने वाले भगवान् भास्कर का सौंदर्य भी अद्भुत है। सायं संध्या योगियों के ब्रह्म साक्षात्कार का सोपान है। अपने-अपने ईष्टदेवों-गणेश, शिव, विष्णु आदि का ध्यान भी सूर्यमंडल में करने का शास्त्रीय विधान है।
धाता कृतस्थली हेतिर्वासुकी रथकृन्मुने। पुलस्त्यस्तुम्बुरुरिति मधुमासं नयन्त्यमी॥1॥
धाता शुभस्य मे दाता भूयो भूयोऽपि भूयस:। रश्मिजालसमाश्लिष्टस्तमस्तोमविनाशन:॥ 2॥


जो भगवान् सूर्य चैत्र मास में धाता नाम से कृतस्थली अप्सरा, पुलस्त्य ऋषि, वासुकी सर्प, रथकृत् यक्ष, हेति राक्षस तथा तुम्बुरु गन्धर्व के साथ अपने रथ पर रहते हैं, उन्हें हम बार-बार नमस्कार करते हैं। वे रश्मिजाल से आवृत्त होकर हमारे अंधकार को दूर करें तथा हमारा पुन:-पुन: कल्याण करें। धाता सूर्य आठ हजार किरणों के साथ तपते हैं तथा उनका रक्त वर्ण है।


एक बार भगवान् शिव ने सूर्यदेव को बुलाकर कहा, ‘‘सप्ताश्ववाहन! तुम मङ्गलमयी काशीपुरी को जाओ। वहां का राजा परम धार्मिक है। उसका नाम दिवोदास है। राजा के धर्म विरुद्ध आचरण से जिस प्रकार काशी उजड़ जाए, वैसा उपाय करो परन्तु उस राजा का अपमान मत करना क्योंकि धर्माचरण में लगे हुए सत्पुरुष का जो अनादर किया जाता है, वह अपने ही ऊपर पड़ता है और वैसा करने से महान् पाप होता है। यदि तुम्हारे बुद्धि बल से राजा धर्मच्युत हो जाए, तब अपनी दु:सह किरणों से तुम नगर को उजाड़ देना।


मैंने देवताओं और योगिनियों को काशी भेजकर देख लिया, वे सब मिलकर भी दिवोदास के धर्माचरण में कोई छिद्र न ढूंढ सके और असफल होकर लौट आए। दिवाकर! इस संसार में जितने जीव हैं, उन सबकी चेष्टाओं को तुम जानते हो, इसलिए लोकचक्षु कहलाते हो। अत: मेरे कार्य की सिद्धि के लिए तुम शीघ्र जाओ। मैं काशी को दिवोदास से खाली कराकर वहां निवास करना चाहता हूं।’’


भगवान् शिव की आज्ञा शिरोधार्य करके सूर्यदेव काशी गए। वहां बाहर-भीतर विचरते हुए उन्होंने राजा में थोड़ा-सा भी धर्म का व्यतिक्रम नहीं देखा। वह अनेक रूप धारण करके काशी में रहे। कभी-कभी उन्होंने नाना प्रकार के दृष्टांतों और कथानकों द्वारा अनेक प्रकार के व्रत का उपदेश करके काशी के नर-नारियों को बहकाने की चेष्टा की किन्तु वह किसी को भी धर्म मार्ग से डिगाने में सफल नहीं हुए। इस प्रकार काशी में विचरते हुए सूर्य ने कभी किसी भी मनुष्य के धर्माचरण में किसी प्रकार का प्रमाद नहीं पाया। 


दुर्लभ काशीपुरी को पाकर कौन सचेत पुरुष उसे छोड़ सकता है। इस संसार में प्रत्येक जन्म में स्त्री, पुत्र, धन मिल सकते हैं, केवल काशीपुरी नहीं मिल सकती। इस प्रकार काशी के धर्ममय प्रभाव को देख कर भगवान् सूर्य का मन काशी में रहने के लिए लोल अर्थात् चंचल हो उठा, इसलिए उनका काशी में लोलार्क नाम प्रसिद्ध हुआ। दक्षिण दिशा में असी संगम के समीप लोलार्क स्थित हैं, वह सदा काशी में रहकर काशी निवासियों के योग- क्षेम का वहन करते हैं। मार्गशीर्ष मास की षष्ठी या सप्तमी तिथि को रवियोग होने पर मनुष्य वहां की यात्रा तथा लोलार्क- सूर्य का दर्शन करके समस्त पापों से मुक्त हो जाता है, जो मनुष्य रविवार को लोलार्क सूर्य का दर्शन करता है, उसे कोई दुख नहीं होता।  


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Niyati Bhandari

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