शनि देव के मुख से जानें, उन्हें खुश करने का उपाय
punjabkesari.in Saturday, Jan 16, 2021 - 05:28 AM (IST)

Story of Shani dev and King Dashrath: प्राचीनकाल की बात है जब ज्योतिषियों ने गणना की तो पाया कि शनैश्चर कृतिका के अंत में जा पहुंचे हैं। अत: उन्होंने महाराज दशरथ को सूचित किया ‘‘राजन इस समय शनि रोहिणी का भेदन करके आगे बढ़ेंगे, यह उग्र शाटक नामक योग है जो सभी के लिए भयंकर है, इससे भयानक दुर्भिक्ष फैलेगा।’’
यह सुनकर राजा दशरथ ने मंत्रिपरिषद की बैठक की। उन्होंने महर्षि वशिष्ठ से पूछा, ‘‘इस संकट को रोकने के लिए क्या उपाय किया जाए?’’
वशिष्ठ जी बोले, ‘‘राजन, यह रोहिणी प्रजापति ब्रह्मा जी का नक्षत्र है, इसका भेद हो जाने पर प्रजा कैसे रह सकती है? ब्रह्मा और इंद्र आदि के लिए भी यह योग असाध्य है।’’
वशिष्ठ जी की बात सुनकर दशरथ असमंजस की स्थिति में पहुंच गए। अंत में उन्होंने मन में साहस किया तथा दिव्य धनुष लेकर रथ में सवार हो वे अत्यंत वेग से नक्षत्रमंडल में पहुंच गए। रोहिणी पृष्ठ सूर्य से सवा लाख योजन ऊपर है। वहां पहुंच कर दशरथ ने धनुष को खींचा और उस पर संहारास्त्र का संधान कर दिया। वह अस्त्र अति भयंकर था। उसे देख कर शनि भयभीत हो गए फिर उन्होंने हंसते हुए महाराज दशरथ से कहा, ‘‘राजन, आपका महान पुरुषार्थ शत्रु को भय पहुंचाने वाला है। मेरी दृष्टि में आकर देवता, असुर, मनुष्य सबके सब भस्म हो जाते हैं लेकिन आप बच गए। अत: राजन आपके तेज, पौरुष और वीरता से मैं प्रसन्न हूं। आप वर मांगिए, आप जो कुछ मांगेंगे, मैं अवश्य दूंगा।’’
Dasharatha Kruta Shani Stotram: तब दशरथ ने कहा, ‘‘शनिदेव, जब तक नदियां और समुद्र हैं जब तक सूर्य और चंद्रमा सहित पृथ्वी स्थित है तब तक आप रोहिणी का भेदन करके आगे न बढ़ें, साथ ही कभी दुर्भिक्ष न करें।’’
शनि ने वरदान देते हुए कहा, ‘‘एवमस्तु।’’
Dashrath Krit Shani Stotram: दो वर पाकर महाराज दशरथ बड़े ही प्रसन्न हुए। अत्यधिक प्रसन्नता के कारण उनके शरीर में रोमांच हो आया। उन्होंने रथ के ऊपर ही धनुष डाल दिया फिर रथ से नीचे उतर कर वे शनिदेव की स्तुति करने लगे।
महाराज दशरथ के स्तुति करने पर शनि ने कहा, ‘‘हे राजेंद्र आपकी स्तुति से मैं प्रसन्न हूं आप वर मांगिए, मैं अवश्य दूंगा।’’
तब दशरथ ने हाथ जोड़ कर कहा, ‘‘हे सूर्यनंदन! आज से आप किसी भी प्राणी को पीड़ा न दें।’’
Shani Upay And Mantra : शनि बोले, ‘‘राजन, मृत्युस्थान, जन्मस्थान या चतुर्थ स्थान में मैं रहूं तो उसे मृत्यु का कष्ट दे सकता हूं लेकिन जो श्रद्धा से युक्त, पवित्र और एकाग्रचित होकर मेरी लौहमयी प्रतिमा का शमी-पत्रों से पूजन करके तिलमिश्रित उड़द-भात, लोहा, काली गौ या काला वृषक्ष ब्राह्मण को दान करता है तथा विशेषत: मेरे दिन को मेरे स्तोत्र से मेरी पूजा करता है, पूजन के पश्चात भी हाथ जोड़ कर मेरे स्तोत्र का जाप करता है, उसे मैं कभी पीड़ा नहीं दूंगा। गोचर में, जन्म लग्न में, दशाओं तथा अंतर्दशाओं में ग्रह पीड़ा का निवारण करके मैं सदा उसकी रक्षा करूंगा। इसी विधान से सारा संसार पीड़ा से मुक्त हो सकता है।’’