श्रीमद्भगवद्गीता: यह शरीर ‘परिधान’ के समान

punjabkesari.in Sunday, Mar 07, 2021 - 12:02 PM (IST)

शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ
श्रीमद्भगवद्गीता
यथारूप
व्या याकार :
स्वामी प्रभुपाद
साक्षात स्पष्ट ज्ञान का उदाहरण भगवद्गीता

यह शरीर ‘परिधान’ के समान
श्रीमद्भगवद्गीता श्लोक-
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना॥

अनुवाद एवं तात्पर्य : सारे जीव प्रारंभ से अव्यक्त रहते हैं, मध्य अवस्था में व्यक्त होते हैं और विनष्टï होने पर पुन: अव्यक्त हो जाते हैं। अत: शोक करने की क्या आवश्यकता है।

आत्मा के अस्तित्व को न मानने वालों को वेदांतवादी नास्तिक कहते हैं। यदि हम तर्क  के लिए इस नास्तिकतावादी सिद्धांत को मान भी लें तो भी शोक करने का कोई कारण नहीं है। यहां तक कि अप्रकट अवस्था में भी वस्तुएं समाप्त नही होतीं। प्रारंभिक तथा अंतिम दोनों अवस्थाओं में ही सारे तत्व अप्रकट रहते हैं, केवल मध्य में वे प्रकट होते हैं और इस तरह इससे कोई वास्तविक अंतर नहीं पड़ता।

यदि हम भगवद् गीता के इस वैदिक निष्कर्ष को मानते हैं कि ये भौतिक शरीर कालक्रम में नाशवान हैं किन्तु आत्मा शाश्वत है तो हमें यह सदा स्मरण रखना होगा कि यह शरीर वस्त्र (परिधान) के समान है, अत: वस्त्र परिवर्तन होने पर शोक क्यों। शाश्वत आत्मा की तुलना में भौतिक शरीर का कोई यथार्थ अस्तित्व नहीं होता।

यह स्वप्न के समान है। स्वप्न में हमें आकाश में उड़ते या राजा की भांति रथ पर सवार हो सकते हैं किन्तु जागने पर देखते हैं कि न तो हम आकाश में हैं न रथ पर। वैदिक ज्ञान आत्म-साक्षात्कार को भौतिक शरीर के अनस्तित्व के आधार पर प्रोत्साहन देता है। अत: चाहे हम आत्मा के अस्तित्व को मानें या न मानें, शरीर नाश के लिए शोक करने का कोई कारण नहीं है। (क्रमश:)


सबसे ज्यादा पढ़े गए

Content Writer

Jyoti

Recommended News

Related News