अहंकार से बचने के लिए श्री गुरु ग्रंथ साहिब में उपदेश

punjabkesari.in Thursday, Dec 01, 2016 - 02:13 PM (IST)

श्री गुरु अर्जुन देव जी के अनुसार मनुष्य में बहुत प्रकार की कमजोरियां पाई जाती हैं। उन सब में से एक है अहंकार। अहंकार मैं हूं, मैं हूं, मैं हूं! जब तक यह मैं बनी रहती है और अहं-भाव बना रहता है तब तक जन्म मरण भी बना रहता है। अहंकार जन्म और मौत का मूल है, जन्म-मरण का कारण है।


अहंकार अपने प्रभाव के कारण मित्रों को भी दुश्मन बना देता है। अहंकार के वशीभूत को जन्म-मरण के चक्रव्यूह में फंस जाने के कारण जीव अनेक प्रकार के कष्ट भोगता है। 


अहंकार से बचाने वाला केवल परमात्मा है। हे जीव! प्रभु का सिमरण कर :
हे जनम मरण मूलं अहंकारं पापातमा।।
मित्रं तजंति सत्रं द्रिडंति अनिक माया बिस्तीरनह।। (पन्ना 1358)


श्री गुरु रामदास जी उच्चारण करते हैं कि हे मानव! तू अपने अंदर का अहं, घमंड दूर करके सदा परमात्मा का सिमरन किया कर। परमात्मा का नाम किसी भी दुनियावी पदार्थ से नहीं खरीदा जा सकता। जब प्रभु किसी को नाम की दात बख्शीश करते हैं तो उसके मन का अहंकार खत्म हो जाता है : 
अंतर का अभिमानु जोरु तू किछु किछु किछु 
जानता इहु दूरि करहु आपन गहु रे।।               (पन्ना 1991)


माया के प्रभाव के कारण जीव शारीरिक सुख की लालसा में ही बंधा रहता है। मैं बड़ा हूं, मैं बड़ा बन जाऊं, इसी भावना से सारे क्रिया कलाप करता है। अहं के कारण जीव की भटकन खत्म नहीं होती। श्री गुरु रामदास जी उच्चारण करते हैं कि जब गुरु की प्राप्ति हो जाए तो अहं भाव मिट जाता है, अहंकार का रोग खत्म हो जाता है : 
हम अहंकारी अहंकार अगिआन मति गुरि मिलिए आपु गवाइआ।  (पन्ना 172) 


जो मनुष्य अहंकारी हो जाता है वह किसी की परवाह नहीं करता। अत: समय में वह ख्वार होता है। सतगुरु की दया से जिसका अहंकार मिट जाता है प्रभु की दरगाह में वही कबूल होता है।
किसै न बदै आपि अहंकारी।।
धरम राइ तिसु करे खुआरी।। (पन्ना 278)


श्री गुरु तेग बहादर साहिब उच्चारण करते हैं कि परमात्मा की भजन-बंदगी, नाम-सिमरन छोड़कर मनुष्य भांति-भांति के कर्मकांड करके मन में अहंकार करता है कि मैं धर्मी पुरुष बन गया हूं। उसके ये सारे प्रयास, किए हुए कर्म उसी तरह व्यर्थ हो जाते हैं जैसे हाथी का किया हुआ स्नान : 
तीरथ बरत अरु दान करि मन मै धरै गुमानु।।
नानक निहफल जात तिह जिउ कुंचर इसनानु।।     (पन्ना 1428) 


श्री गुरु अमरदास जी उच्चारण करते हैं कि हे मनुष्य! माया मोहिनी है। इसने अपने मोह में तुझे फंसाया हुआ है। तुझे अहंकार ने अपनी चपेट में ले रखा है। तू तृष्णा में भटक रहा है और अपना जन्म व्यर्थ गंवा रहा है। परलोक में जाकर तुझे पछताना पड़ेगा। कहीं इस गुमान में न रहना कि मैं बहुत समझदार हूं। गुरु की शरण में जाकर अपने अहं को त्याग कर रखना : 
अहंकारु त्रिसना रोगु लगा बिरथा जनमु गवावहे।।     (पन्ना 441)


श्री गुरु अर्जुन देव जी उच्चारण करते हैं कि अनेकों प्रकार के कर्म करके मनुष्य इन पर अहंकार करे तो वह जन्म-मरण में बार-बार आता है। कभी दुख और कभी सुख भोगता है :
अनिक तपसिआ करे अहंकार।।
नरक सुरग फिरि-फिरि अवतार।।     (पन्ना 287) 


श्री गुरु अमरदास जी उच्चारण करते हैं कि जो मनुष्य प्रभु को सम्मुख जानकर जीवन जीता है उसके मन में परमात्मा का नाम बसा जानो। ऐसे मनुष्य का आपा भाव मिट जाता है, प्रभु में श्रद्धा बढ़ जाती है। वह अपने में से ‘हउमै’ आदि विकार त्याग देता है और अहंकार नहीं करता : 
मनु सबदि मरै परतीति होइ हउमै तजे विकार।।    (पन्ना 162) 


अहंकारी मनुष्य स्वयं को महान समझता है और दूसरों को तुच्छ। वह प्रत्येक को छोटा समझता है :
आपस कउ दीरघु करि जानै अउरन कऊ लग मात।।      (पन्ना 1105) 


श्री गुरु अमरदास जी उच्चारण करते हैं कि ‘हउमै’ में फंस कर सारा जगत पागल हो रहा है, माया के मोह में भटक रहा है। वह अपने वास्तविक जीवन-उद्देश्य को पहचानने का यत्न नहीं करता। गुरु की शरण में रह कर माया मोह से अलग होकर अडोल अवस्था में टिक जाता है।
हउमै विचि सभु जगु बउराना।      (पन्ना 151)


श्री गुरु अमरदास जी के अनुसार वह मनुष्य बहादुर है जिसने अपने मन से अहंकार को दूर कर, गुरु के सम्मुख को प्रभु नाम की सिफत-सलाह करके अपना जन्म सफल किया है। वह सदा के लिए विकारों से छूट जाता है और अपने कुल वंश को भी मुक्त कर लेता है। प्रभु नाम से प्यार करने वाले प्रभु की दरगाह में शोभा पाते हैं जबकि अहंकारी मनुष्य अपने ही अहंकार में जलता है, दुखी होकर मरता है : 
नानक सो सूरा वरीआमु जिनि विचहु दुसटु अहंकरणु मारिआ।।      (पन्ना 86)


श्री गुरु अर्जुन देव जी कहते हैं कि गरीबी (नम्रता) स्वभाव वाला मनुष्य अहंभाव दूर करके विनम्र रह कर सुखी रहता है। अभिमानी, अहंकारी मनुष्य अपने अहं में पड़कर गर्क हो जाते हैं। परमात्मा जिन पर अपनी दया दृष्टि करते हैं वे विकारों से बचकर सुखी हो जाते हैं और परलोक में भी सुख पाते हैं :
सुखी बसै मसकीनीआ आपु निवारि तले।।
बड़े-बड़े अहंकारिआ नानक गरबि गले।।     (पन्ना 278)

 

 

 

 


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