श्रीमद्भागवत गीता: क्या आप भी खुद को ईश्वर में रमाने की रखते हैं इच्छा तो....

punjabkesari.in Sunday, Jun 26, 2022 - 10:05 AM (IST)

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धार्मिक शास्त्रों में न केवल सनातन धर्म के देवी-देवताओं के बारे में वर्णन पढ़ने सुनने को मिलता है। बल्कि इसमें कई ऐसे उपदेश भी हैं, जो मानव जीवन को न केवल सही मार्ग पर लेकर जाते हैं, बल्कि साथ ही साथ उसे एक बेहतर व सफल इंसान बनाने में मदद करते हैं। श्रीमद्भागवत गीता भी इन हिंदू धर्म के शास्त्रों में शामिल है, जिसमें श्री कृष्ण न  अपने सखा अर्जुन को युद्ध भूमि पर ऐसे उपदेश दिए थे जो न केवल युद्ध से जुड़े हुए थे बल्कि इन उपदेशों में मानव जीवन की पूरी जिंदगी समाई हुई है। जी हां, कहने का भाव है कि इन उपेदशों में मानव जीवन से जुड़े लगभग हर बात वर्णित है, जिसे जानने वाला जीवन में सफल होकर समाज में अपनी अलग ही पहचान पाता है। तो आइए आपको बताते हैं कि श्रीमद्भागवत गीता के एक ऐसे श्लोक के बारे में जिसमें परम सत्य क्या है इस बारे में जानकारी दी गई है।

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श्रीमद्भागवत गीता
यथारूप
व्याख्याकार :
स्वामी प्रभुपाद
अध्याय 1
साक्षात स्पष्ट ज्ञान का उदाहरण भगवदगीता

श्रीमद्भागवत गीता श्लोक-
तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मभिागयो:।
गुणा गुनेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते।। 28।।

अनुवाद तथा तात्पर्य : हे महाबाहो! भक्तिभावमय कर्म तथा सकाम कर्म के भेद को भली-भांति जानते हुए जो परम सत्य को जानने वाला है, वह कभी अपने आपको इंद्रियों में तथा इंद्रिय तृप्ति में नहीं लगाता। परम सत्य को जानने वाला भौतिक संगति में अपनी विषम स्थिति को जानता है। वह जानता है कि वह भगवान कृष्ण का अंश है और उसका स्थान इस भौतिक सृष्टि में नहीं होना चाहिए।

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वह व्यक्ति अपने वास्तविक स्वरूप को भगवान के अंश के रूप में जानता है जो सत् चित आनंद हैं और उसे हमेशा ही यह अनुभूति होती रहती है कि ‘‘मैं किसी कारण से देहात्मबुद्धि में फंस चुका हूं।’’

ईश्वर में खुद को रमाने की इच्छा रखने वाले व्यक्ति को अपने अस्तित्व की शुद्ध अवस्था में सारे कार्य भगवान श्री कृष्ण की सेवा में ही नियोजित करने चाहिए।

फलत: वह अपने आपको कृष्णभावनामृत के कार्यों में लगाता है और भौतिक इंद्रियों के कार्यों के प्रति स्वभावत: अनासक्त हो जाता है क्योंकि ये परिस्थितिजन्य तथा अस्थायी हैं।  वह जानता है कि उसके जीवन की भौतिक दशा भगवान के नियंत्रण में है, फलत: वह सभी प्रकार के भौतिक बंधनों से विचलित नहीं होता क्योंकि वह इन्हें भगवत्कृपा मानता है। श्रीमद्भागवत के अनुसार जो व्यक्ति परम सत्य को उनके तीन रूपों - ब्रह्म, परमात्मा तथा श्रीभगवान - में जानता है वह तत्त्ववित् कहलाता है, क्योंकि वह परमेश्वर के साथ अपने वास्तविक संबंध को भी जानता है। 

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Content Writer

Jyoti

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