श्रीमद्भगवद्गीता: अर्जुन नहीं थे युद्ध के इच्छुक

punjabkesari.in Sunday, Apr 19, 2020 - 01:54 PM (IST)

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श्रीमद्भगवद्गीता
यथारूप
व्याख्याकार :
स्वामी प्रभुपाद
अध्याय 1
साक्षात स्पष्ट ज्ञान का उदाहरण भगवद्गीता
सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत।
यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धकामानवस्थितान्॥
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन्रणसमुद्यमे॥

अनुवाद- अर्जुन ने कहा : हे अच्युत! कृपा करके मेरा रथ दोनों सेनाओं के बीच ले चलें जिससे मैं यहां उपस्थित युद्ध की अभिलाषा रखने वालों को और इस महान परीक्षा में जिनसे मुझे संघर्ष करना है, उन्हें देख सकूं।

तात्पर्य-
यद्यपि श्रीकृष्ण साक्षात् श्रीभगवान हैं, परन्तु वह अहैतुकी कृपावश अपने मित्र की सेवा में लगे हुए थे। वह अपने भक्तों पर स्नेह दिखाने में कभी नहीं चूकते इसीलिए अर्जुन ने उन्हें ‘अच्युत’ कहा है। सारथी रूप में उन्हें अर्जुन की आज्ञा का पालन करना था और उन्होंने इसमें कोई संकोच नहीं किया, अत: उन्हें अच्युत कह कर संबोधित किया गया है।

यद्यपि उन्होंने अपने भक्त का सारथी पद स्वीकार किया था किंतु इससे उनकी परम स्थिति अक्षुण्ण बनी रही। प्रत्येक परिस्थिति में वह इंद्रियों के स्वामी श्रीभगवान हृषिकेश हैं। भगवान तथा उनके सेवक का संबंध अत्यंत मधुर एवं दिव्य होता है। सेवक स्वामी की सेवा करने के लिए सदैव उद्यत रहता है और भगवान भी भक्त की कुछ न कुछ सेवा करने की ताक में रहते हैं। वह इसमें विशेष आनंद का अनुभव करते हैं कि वह स्वयं आज्ञादाता न बनें अपितु उनके शुद्ध भक्त उन्हें आज्ञा दें। चूंकि वे स्वामी हैं, अत: सभी लोग उनके आज्ञापालक हैं और उनको आज्ञा देने वाला उनके ऊपर कोई नहीं है। किंतु जब वह देखते हैं कि उनका शुद्ध भक्त आज्ञा दे रहा है तो उन्हें दिव्य आनंद मिलता है यद्यपि वह समस्त परिस्थितियों में अच्युत रहने वाले हैं।

भगवान का शुद्ध भक्त होने के कारण अर्जुन को अपने बंधु-बांधवों से युद्ध करने की तनिक भी इच्छा न थी किंतु दुर्योधन के शांतिपूर्ण समझौता न करके हठधर्मिता पर उतारू होने के कारण उसे युद्धभूमि में आना पड़ा। अत: वह यह जानने के लिए अत्यंत उत्सुक थे कि युद्धभूमि में कौन-कौन से अग्रणी व्यक्ति उपस्थित हैं। यद्यपि युद्धभूमि में शांति-प्रयासों का कोई प्रश्र नहीं उठता तो भी यह देखना चाह रहे थे कि वे इस अवांछित युद्ध पर किस हद तक तुले हुए हैं। (क्रमश:)


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Jyoti

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