श्रीमद्भगवद्गीता: पांचों पांडव जन्म से ही थे पवित्र

punjabkesari.in Sunday, Feb 02, 2020 - 02:49 PM (IST)

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ऐसा माना जाता है कि सभी ग्रंथों में से श्रीमद्भगवद्गीता को सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है क्योंकि इसमें व्यक्ति के जीवन का सार है और इसमें महाभारत काल से लेकर द्वापर में कृष्ण की सभी लीलाओं का वर्णन किया गया है। बता दें कि इसकी रचना महर्षि वेदव्यास ने की थी। भगवद्गीता पूर्णत: अर्जुन और उनके सारथी श्रीकृष्ण के बीच हुए संवाद पर आधारित पुस्तक है। गीता में ज्ञानयोग, कर्म योग, भक्ति योग, राजयोग, एकेश्वरवाद आदि की बहुत सुंदर ढंग से चर्चा की गई है। गीता मनुष्य को कर्म का महत्व समझाती है। गीता में श्रेष्ठ मानव जीवन का सार बताया गया है। इसके साथ ही इसमें 18 ऐसे अध्याय हैं जिनमें आपके जीवन से जुड़े हर सवाल का जवाब और आपकी हर समस्या का हल मिल सकता है। आज हम आपको एक ऐसे श्लोक के बारे में बताने जा रहे हैं, जिसमें बताया गया है कि पांडव अपने जन्म से ही पवित्र माने जाते हैं। 
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श्लोक
दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा।
आचार्यमुपसङ्गम्य राजा वचनमब्रवीत॥2॥

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अनुवाद : संजय ने कहा, हे  राजन! पाण्डु पुत्रों द्वारा सेना की व्यूह रचना देख कर राजा दुर्योधन अपने गुरु के पास गया और उसने ये शब्द कहे।

तात्पर्य : धृतराष्ट जन्म से अंधे थे। दुर्भाग्यवश वह आध्यात्मिक दृष्टि से भी वंचित थे। वह यह भी जानते थे कि उन्हीं के समान उनके पुत्र भी धर्म के मामले में अंधे हैं और उन्हें विश्वास था कि वे पांडवों के साथ कभी भी समझौता नहीं कर पाएंगे क्योंकि पांचों पांडव जन्म से ही पवित्र थे। फिर भी उसे तीर्थस्थान के प्रभाव के विषय में संदेह था। इसीलिए युद्धभूमि की स्थिति के विषय में उसके प्रश्र के मंतव्य को संजय समझ गया। अत: वह निराश राजा को प्रोत्साहित करना चाह रहा था। उसने उसे विश्वास दिलाया कि उसके पुत्र पवित्र स्थान के प्रभाव में आकर किसी प्रकार का समझौता करने नहीं जा रहे हैं।
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उसने राजा को बताया कि उनका पुत्र दुर्योधन पांडवों की सेना को देखकर तुरंत अपने सेनापति द्रोणाचार्य को वास्तविक स्थिति से अवगत कराने गया। यद्यपि दुर्योधन को राजा कह कर संबोधित किया गया है तो भी स्थिति की गंभीरता के कारण उसे सेनापति के पास जाना पड़ा। अतएव दुर्योधन राजनीतिज्ञ बनने के लिए सर्वथा उपयुक्त था किन्तु जब उसने पांडवों की व्यूहरचना देखी तो उसका यह कूटनीतिक व्यवहार उसके भय को छिपा न पाया। 


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