अशांति के समुद्र में डूबते हुए को पार लगाती है "गीता"
punjabkesari.in Monday, Sep 21, 2020 - 04:36 PM (IST)
शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ
श्लोक-
ड्डयदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानम धर्मस्य तदात्मनं सृजाम्यहम॥
जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है तब-तब ही मैं अपने स्वरूप को रचता हूं अर्थात प्रकट होता हूं। भगवान विष्णु किसी न किसी रूप में अवतरित होकर पापियों का नाश कर धर्म की पुन: स्थापना करते हैं। शास्त्रों के अनुसार भगवान विष्णु ने 23 अवतार धारण किए जिसमें सबसे महत्वपूर्ण अवतार श्री कृष्ण का है।
लगभग 5000 वर्ष पूर्व जब श्री कृष्ण ने यह दिव्य उपदेश अर्जुन को महाभारत युद्ध के समय कुरुक्षेत्र में दिया, तब से आज तक हजारों लाखों विद्वानों, तपस्वियों, ऋषि-मुनियों और शोध कर्म करने वालों ने गीता की व्याख्या की। गीता अशांति के समुद्र में शांति का दीप है। ज्ञान से हम आत्मा और भक्ति से परमात्मा को जान सकते हैं किन्तु कर्म से आत्मा और परमात्मा दोनों को ही जाना जा सकता है। कर्म के बिना अज्ञान अधूरा और भक्ति अपूर्ण है। मनुष्य कर्म से ही सुख, दुख, भय एवं मोक्ष प्राप्त करता है।
श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा, ‘‘हे अर्जुन कर्म करना प्रत्येक मानव का धर्म है क्योंकि मानव का जीवन कर्म पर ही आधारित है बिना कर्म किए कोई भी मानव मुक्ति अर्थात आवागमन से छुटकारा नहीं पा सकता और न ही कर्म को त्याग कर उसे पूर्णता यानी सिद्धि की प्राप्ति हो सकती है। श्री कृष्ण ने गीता में कर्म को व्यक्ति का धर्म ही नहीं माना है बल्कि इसे योग भी कहा है। यानी भगवत प्राप्ति के लिए कर्म एक साधना के समान है और साधना ही योग है। गीता में कर्मयोग, ज्ञान योग और भक्ति योग का ऐसा समन्वय है कि मानव ऐसी जीवनपद्धति की राह पकड़ता है जिसका पालन करता हुआ वह एक भय मुक्त और शांति पूर्वक जीवन व्यतीत करते हुए अपने उद्देश्यों की पूर्ति सहज ही कर सकता है।’’
मानव इस संसार में पूरा जीवन समस्याओं से घिरा रहता है। समस्याओं में सबसे पहले है मृत्यु का डर, जो उसे सताता रहता है। कोई भी इस संसार में मृत्यु नहीं चाहता। गीता मानव को इस डर से मुक्त करती है। गीता कहती है कि मृत्यु है ही नहीं, तो रोना-धोना किसलिए? यह तो एक वस्त्र परिवर्तन है। जिस तरह मानव पुराने वस्त्र त्यागकर नए वस्त्र धारण करता है उसी प्रकार आत्मा जीर्ण-शीर्ण काया को त्याग कर नया शरीर धारण कर लेती है।
गीता में श्री कृष्ण कहते हैं कि ऐसा नहीं कि पहले नहीं था या तू नहीं था या ये राजा लोग (महाभारत युद्ध में उपस्थित) नहीं थे। ऐसा भी नहीं है कि इसके बाद हम सब नहीं होंगे। मृत्यु तो हमारी उपज मात्र है। मानव की दूसरी समस्या है चिन्ता। चिन्ता मुक्त जीने की कामना प्रत्येक मानव करता है। इस संसार में कोई भी मानव अशांत नहीं रहना चाहता मगर अशांति मानव को आजीवन अपने शिकंजे में रखती है। कभी कारोबार, कभी पढ़ाई, कभी नौकरी की चिन्ता तो कभी बच्चों की चिन्ता। श्री कृष्ण इस समस्या की महौषधि मानव को सौंपते हुए कहते हैं कि परिणाम की ङ्क्षचता क्यों करते हो? क्या यह सब तुम्हारे हाथ में है? तुम्हारा अधिकार तो कर्म पर है बस उसे करो। कर्म फल को अपने अनुकूल बनाने का (व्यर्थ) प्रयास मत करो न ही स्वयं को कर्म के साथ बांधो।
मानव की तीसरी समस्या है आलस्य। कर्म न करने वाला मानव हमेशा चिन्ताग्रस्त रहेगा। श्री कृष्ण कहते हैं निठल्ले मत बैठो। अपने नित्य कर्म करो। कर्म, अकर्म से श्रेष्ठ है। कर्म नहीं करोगे तो शरीर यात्रा भी सिद्ध नहीं होगी।
अगर आज की बात करें तो गीता के ज्ञान से हम समाज में फैली कुरीतियों, भ्रष्टाचार, साम्प्रदायिकता, अविश्वास, भय आदि से मुक्ति पा सकते हैं। गीता का मूल स्वर भी मोह से मुक्ति और कर्म से युक्ति ही है। अर्जुन से श्री कृष्ण कहते हैं कि कर्म करना प्रत्येक मानव का धर्म है। सब जगत मेरे द्वारा चलायमान है। मैं ही कत्र्ता और अकत्र्ता हूं। सामने दिखने वाले लोग तो कठपुतलियां मात्र हैं।
कर्म को ही धर्म मानने का उपदेश देते हुए श्री कृष्ण ने अर्जुन से युद्ध करने को कहा। विराट रूप देखने के उपरांत अर्जुन ने श्री कृष्ण द्वारा दर्शाए मार्ग पर चल कर क्षत्रिय धर्म का पालन किया और कौरवों पर विजय प्राप्त की।