शिव-पार्वती से सीखें, विवाह का आध्यात्मिक स्वरूप
punjabkesari.in Wednesday, Jun 18, 2025 - 08:48 AM (IST)

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Shiv Parvati: हम सब इस सृष्टि में’ संतुलन’ के महत्व को जानते हैं। ब्रह्माण्ड में सब कुछ इसी संतुलन की वजह से ही अपने अपने स्थान पर है। इसी प्रकार से इस सृष्टि के संरक्षण हेतु प्रकृति की सभी शक्तियों को प्रति पल एक संतुलन की स्थिति में होना आवश्यक है। लघु या अल्प शक्तियां और कुछ नहीं ब्रह्माण्ड की महा शक्तियों का ही सूक्ष्म स्वरूप हैं। महादेव शिव का अर्धनारीश्वर रूप,माता पार्वती और भगवान शिव अर्थात पुरुष और प्रकृति के मिलन का प्रतिनिधित्व करता है। दोनों ही प्रकृति के दो अलग अलग पहलू हैं किन्तु एक आदर्श, सामंजस्यपूर्ण संतुलन बनाने के लिए एक दूसरे से मिलकर पूर्णता प्रदान करते हैं।
यह अर्धनारीश्वर रूप प्रकृति की उन शक्तियों का प्रतिनिधित्व है जो एक-दूसरे की पूरक हैं। उनके योग अर्थात मिलन से ही एक पूर्ण का सृजन होता है। एक दूसरे से मिलकर वह शक्तियां एक हो जाती हैं जिसमे किसी द्व्न्द या अलगाव का स्थान नहीं रह जाता। वैदिक संस्कृति में विवाह की यही अवधारणा रही है। स्त्री और पुरुष के बीच विवाह का संबंध प्रतीकात्मक रूप से अर्धनारीश्वर का ही स्वरूप है, अर्थात दो विभिन्न शक्तियों के मिलन का प्रतीक। विवाह के सूत्र में बंधकर वह दोनों आजीवन एक दूसरे का अविभाज्य अंग बन जाते हैं। फिर कोई व्यक्तिगत पहचान नहीं रहती, इस कारण उसमें तलाक के लिए भी कोई गुंजाइश नहीं होती। वैदिक काल में तलाक का अस्तित्व ही नहीं था। विवाह का संबंध स्थापित होने पर, एक पुरुष को जीवन भर के लिए अपनी पत्नी की पूर्ण भौतिक तथा आर्थिक आवश्यकताओं की जिम्मेदारी लेनी होती थी और बदले में स्त्री अपने पति और उसके पूरे परिवार की, पूरी निष्ठा और सम्मान के साथ देखभाल करती थी। वह उसके वंश के विस्तार तथा बच्चों में उचित मूल्यों और सिद्धांतों के संस्कारों को पैदा करने के लिए जिम्मेदार थी।
स्त्री को पुरुष के जीवन में एक शक्ति के रूप में माना जाता है। यदि पुरुष वाहन है तो स्त्री उसका ईंधन जो एक साथ मिलकर इच्छित अनुभवों के माध्यम से जीवन यात्रा पूर्ण करते हैं। यह निश्चित है कि जो स्त्री अपने पति के प्रति(विचारों, शब्दों और कर्मों में ) पूर्ण रूप से प्रतिबद्ध है, अपने पति को किसी भी ऊंचाई तक ले जा सकती है। ऐसे व्यक्ति के लिए इस संसार में कुछ भी प्राप्त करना असंभव नहीं है। जिस प्रकार प्रकृति की हर घटना किसी उद्देश्य पूर्ति के लिए ही होती है उसी प्रकार स्त्री पुरुष का मिलना भी। जिस प्रकार हर कर्म का मूल उसकी इच्छा में छिपा होता है उसी प्रकार इच्छा ही उस मिलन के उद्देश्य को निर्धारित करती है और तदनुसार उन इच्छाओं की पूर्ति के लिए स्त्री पुरुष मिलकर उस यात्रा का हिस्सा बनते हैं।
दो शक्तियों का मिलन सदैव सृजन के लिए ही होता है। अपनी इच्छा के आधार पर वह विभिन्न स्तरों पर मिलकर सृजन करते हैं और अपने अनुभवों को लेते हुए यात्रा पूर्ण करते हैं। इच्छा और उद्देश्य पर आधारित ये बंधन या अनुभव उस रिश्ते की उम्र भी तय करते हैं। जितना ऊंचा उद्देश्य उतना ही दीर्घ वह संयोजन या संबंध। सम्बन्ध उस मेल को कहते हैं जो दो लोगों के बीच उस स्तर पर स्थापित हो जाता है जहां पर उन दोनों की शक्तियाँ मिल जाती हैं अर्थात चक्रों के स्तर पर उनका मिलन होता है। जैसा कि हम जानते हैं कि प्रत्येक चक्र से सम्बंधित कुछ विशेषताएं होती हैं, इन्हीं विशेषताओं के स्तर पर ही दो व्यक्तियों का मिलन होता है।
निम्नतर या स्थूल स्तर सांसारिक इच्छाओं को दर्शाता है जो कि मूलाधार चक्र की विशेषता है। वह केवल जीवन की स्थूल आवश्यकताओं जैसे कि धन और चीज़ों के आदान प्रदान, को संतुष्ट करता है। इस स्तर के मेल में कोई उच्च प्रयोजन नहीं है। मूलाधार चक्र से थोड़ा ऊपर स्वाधिष्ठान चक्र का मेल यौन इच्छाओं या सन्तति सृजन के आधार पर होता है। इसके ऊपर मणिपूरक चक्र पर संयोग, सामाजिक, राजनैतिक या आर्थिक शक्ति के आधार पर स्थापित होता है। जैसा कि पहले समय में दो साम्राज्यों के बीच विवाह सम्बन्ध द्वारा मेल स्थापित किया जाता था। इस मिलन का उद्देश्य राज्यों के विस्तार तथा राजनैतिक व् आर्थिक स्थिति के विस्तार हेतु होता था। इसके अलावा दो राज्यों के विलय का अर्थ था दुश्मन के आक्रमण के खिलाफ और मज़बूत हो जाना। यह इस श्रृंखला का पहला भाग है।
अश्विनी गुरुजी ध्यान आश्रम