ऋषियों के मुख से जानें कैसी होती है भूख की पीड़ा

punjabkesari.in Friday, Apr 06, 2018 - 10:59 AM (IST)

बहुत पुराने समय की बात है। एक बार पृथ्वी पर बारह वर्ष तक वर्षा नहीं हुई। इस कारण पृथ्वी पर घोर अकाल की स्थिति पैदा हो गई। पृथ्वी पर रहने वाले प्राणी भूखों मरने लगे। सप्तऋषि भी भूख-प्यास से व्याकुल होकर इधर-उधर भटकने लगे। घूमते-घूमते ये वृषार्दिभ नामक राजा के राज्य में पहुंचे। उनके आगमन का समाचार सुनकर राजा अपने महल से बाहर आया और उनका स्वागत-सत्कार करके बोला, ‘‘मुनिवृंद! मैं आपको अन्न, ग्राम, घृत, दुग्ध आदि रस एवं भांति-भांति के रत्न अर्पित कर रहा हूं। कृपया इन्हें स्वीकार करें।’’


यह सुनकर ऋषि बोले, ‘‘राजन! राजा का दिया हुआ दान ऊपर से तो मधु के समान मीठा दिखाई देता है, किंतु परिणाम में वह विष के समान हो जाता है। इस बात को जानकर भी हम लोग आपके प्रलोभन में क्यों फंसें? ब्राह्मणों का शरीर तो देवताओं का निवास स्थान होता है। यदि ब्राह्मण तपस्या से शुद्ध एवं संतुष्ट रहता है तो वह संपूर्ण देवताओं को प्रसन्न रखता है। ब्राह्मण दिन-भर में जितना तप संग्रह करता है, उसे राजा का दान क्षण-भर में इस प्रकार जला डालता है, जैसे सूखे जंगल को प्रचंड दावानल। इसलिए आप इस दान को अपने पास ही रखें। जो इसे मांगे अथवा जिन्हें इसकी आवश्यकता हो, उन्हें ही यह दान दे दें।’’


इतना कहकर वे ऋषिगण दूसरे रास्ते से आहार की खोज में वन में चले गए। इसके बाद राजा ने अपने मंत्रियों को गूलर के फलों में सोना भर-भरकर ऋषियों के मार्ग में रखवा देने का आदेश दिया। उसके सेवकों ने ऐसा ही किया। महर्षि अत्रि ने जब उनमें से एक गूलर को उठाया तो उन्हें वह फल बड़ा वजनदार महसूस हुआ। उन्होंने कहा, ‘‘हमारी बुद्धि इतनी मंद नहीं हुई है और न ही हम सो रहे हैं। हमें मालूम है इनके भीतर स्वर्ण है। यदि आज हम इन्हें ले लेते हैं तो परलोक में हमें इसका कटु परिणाम भोगना पड़ेगा।’’


यह कह कर दृढ़तापूर्वक नियमों का पालन करने वाले वे ऋषिगण वहां से आगे बढ़ गए। घूमते-घूमते वे मध्य पुष्कर में गए, जहां अकस्मात आए हुए शुन:सख नामक परिव्राजक से उनकी भेंट हुई। वहां उन्हें एक बहुत बड़ा सरोवर दिखाई दिया। उसके जल में हजारों कमल खिले हुए थे। वे सब-के-सब उस सरोवर के  किनारे बैठ गए। उसी समय शुन:सख ने पूछा, ‘‘आप सब यह बताएं कि भूख की पीड़ा कैसी होती है?’’


ऋषि बोले, ‘‘अस्त्र-शस्त्रों से मनुष्य को जितनी वेदना होती है, वह वेदना भी भूख के सामने मात हो जाती है। पेट की आग से शरीर की समस्त नाडिय़ां सूख जाती हैं। आंखों के आगे अंधेरा छा जाता है, कुछ भी सुझाई नहीं देता। भूख की आग प्रज्वलित होने पर प्राणी गूंगा, बहरा, जड़, पंगु, भयंकर एवं मर्यादाहीन हो जाता है। इसलिए अन्न ही सर्वोत्तम पदार्थ है।’’


ऋषियों ने आगे कहा, ‘‘इसीलिए अन्नदान को सबसे बड़ा दान माना गया है। अन्नदान करने वाले को अक्षय तृप्ति और सनातन स्थिति प्राप्त होती है। चंदन, अगर, धूप और शीतकाल में ईंधन का दान अन्नदान के सोलहवें भाग के बराबर भी नहीं हो सकता। दम, दान और शम ये तीन मुख्य धर्म हैं। इनमें से भी दम विशेषत: ब्राह्मणों का सनातन धर्म है। दम तेज को बढ़ाता है। जितेन्द्रिय पुरुष जहां कहीं भी रहता है, उसके लिए वही स्थान तपोबल बन जाता है। जो सदा शुभकार्यों में ही प्रवृत्त रहता है उसके लिए तो घर भी उपवन के समान ही है। केवल शब्द-शास्त्र (व्याकरण) में ही लगे रहने से मोक्ष नहीं होता, मोक्ष तो एकांत सेवी, यम-नियमरत, ध्यान-पुरुष को ही प्राप्त होता है।’’


इस प्रकार उन ऋषियों ने भिन्न-भिन्न प्रकार के उदाहरण देकर शुन:-सख की जिज्ञासा शांत कर दी। तदंतर ऋषियों के मन में विचार हुआ कि इस सरोवर में से कुछ ‘मुणाल’ निकाले जाएं, परंतु उस सरोवर में प्रवेश करने के लिए सिर्फ एक ही घाट था और उस घाट पर खड़ी थी राजा वृषार्दिभ की कृत्या, जिसे राजा ने अपने को अपमानित समझकर ब्राह्मणों द्वारा अनुष्ठान कराकर सप्तऋषियों की हत्या करने के लिए भेजा था। सप्तऋषियों ने जब उस विकराल राक्षसी को वहां खड़ी देखा तो उन्होंने उसका नाम तथा वहां खड़ी होने का प्रयोजन पूछा। 


राक्षसी बोली, ‘‘मैं जो कोई भी हूं, तुम्हें मेरा परिचय पूछने की आवश्यकता नहीं है। तुम यह समझ लो कि मैं इस सरोवर की रक्षिका हूं।’’


ऋषियों ने कहा, ‘‘भद्रे! हम लोग भूख से व्याकुल हैं। यदि तुम हमें आज्ञा दो तो हम इस सरोवर से कुछ मृणाल उखाड़ लें?’’


राक्षसी बोली, ‘‘मैं तुम लोगों को ऐसा करने की आज्ञा एक शर्त पर दे सकती हूं। तुममें से एक-एक आदमी आगे आकर पहले अपना नाम बताए और तत्पश्चात ही सरोवर में प्रवेश करे।’’


उसकी बात सुनकर महर्षि अत्रि समझ तो गए कि यह कृत्या एक राक्षसी है और हम लोगों का वध करने के लिए ही यहां आई है।


तथापि भूख से व्याकुल होने के कारण उन्होंने उस कृत्या से कहा, ‘‘हे कल्याणी! पाप से त्राण करने वाले को ‘अरात्र’ कहते हैं और उनसे बचाने वाले को ‘अत्रि’ कहा जाता है। अत: पाप रूप मृत्यु से बचाने वाला होने के कारण ही मैं ‘अत्रि’ हूं।’’


राक्षसी बोली, ‘‘तेजस्वी महर्षि! तुमने जिस प्रकार अपने नाम का तात्पर्य बताया है, वह मेरी समझ में आना कठिन है, फिर भी तुम सरोवर में उतर सकते हो।’’


इसी प्रकार राक्षसी ने जब महर्षि वशिष्ठ से उनका नाम पूछा तो उन्होंने कहा, ‘‘मेरा नाम वशिष्ठ है। वशिष्ठ का अर्थ होता है सबसे श्रेष्ठ। इसी कारण मेरा यह नाम प्रसिद्ध हुआ है।’’


राक्षसी बोली, ‘‘तुम्हारा नाम तो बहुत क्लिष्ट है। मैं यह नाम भी याद नहीं रख सकती। ठीक है, तुम भी सरोवर में जा सकते हो।’’


इसी प्रकार राक्षसी द्वारा उनका नाम पूछने पर महर्षि कश्यप ने कहा, ‘‘कश्य नाम है शरीर का, जो इस शरीर का पालन करता हो, वह ‘कश्यप’ है। ‘कु’ अर्थात पृथ्वी पर अग्रि वर्षा करने वाला सूर्य भी मेरा ही स्वरूप है, अत: मैं ‘कुवम’ भी हूं। ‘काश’ के फूल की भांति उज्ज्वल होने से मुझे ‘कश्यप’ भी समझ सकती हो।’’


इसी प्रकार सभी ऋषियों ने बारी-बारी से अपने-अपने नाम बताए, किंतु वह किसी के भी नाम को ठीक से याद न कर पाई और न व्याख्या ही समझ सकी। अंत में शुन:सख की बारी आई। उन्होंने अपना नाम बताते हुए कहा, ‘‘इन ऋषियों ने जिस प्रकार अपना-अपना नाम बताया है, मैं उस प्रकार अपना नाम नहीं बता सकता। मेरा नाम है शुन:सख, जिसका अर्थ होता है धर्म स्वरूप मुनियों का मित्र।’’


इस पर उस राक्षसी ने कहा, ‘‘तुम्हारे नाम का अर्थ तो मेरी समझ में बिल्कुल भी नहीं आया। तुम एक बार फिर से अपना नाम दोहराओ।’’


शुन:सख ने फिर से अपना नाम बता दिया। तब राक्षसी ने उनसे तीसरी बार नाम बताने को कहा। इस पर शुन:सख को क्रोध आ गया और उन्होंने उस राक्षसी से कहा, ‘‘मैंने तुम्हें कई बार अपना नाम बता दिया, फिर भी तुम बार-बार मेरा नाम पूछे जा रही हो। अब अगर अगली बार तुमने मेरा नाम पूछा तो मैं तुम्हें बड़ा दंड दे दूंगा।’’


‘‘वह मैं देख लूंगी।’’ कृत्या ढिठाई से बोली, ‘‘पहले अपना नाम दोहराओ।’’


बस फिर क्या था, शुन:सख का धैर्य जवाब दे गया। उन्होंने अपना त्रिदंड उठाया और तानकर राक्षसी की ओर फैंक दिया। त्रिदंड का स्पर्श करते ही उसका शरीर जल उठा और वह भस्म हो गई।


यह देखकर सप्तऋषियों ने शुन:सख से पूछा, ‘‘हे संन्यासी! आप वास्तव में कौन हो, हमें अपना परिचय दो, क्योंकि आपने जिस प्रकार कोप करके राक्षसी को भस्म किया है, वैसा कोई सामान्य संन्यासी तो कभी नहीं कर सकता। संन्यासी का आभूषण तो ‘क्षमा’ होता है। वह अपना अहित करने वाले को भी क्षमा कर देता है।’’


यह सुनकर शुन:सख अपने असली रूप में प्रकट हो गए। वे बोले, ‘‘ऋषिवर! आप बिल्कुल सही समझे हैं। मैं संन्यासी नहीं, देवराज इन्द्र हूं। आप लोगों की रक्षा के लिए ही मैं यहां आया था। राजा वृषार्दिभ की भेजी हुई अत्यंत क्रूर कर्म करने वाली यह राक्षसी आप लोगों का वध करने के लिए ही यहां आई थी। इसीलिए मैंने यहां इस वेश में उपस्थित रहकर इस राक्षसी का वध कर डाला। अब आप यहां से उठकर मेरे साथ चलिए।’’ यह सब जानकर सप्तऋषिगण इन्द्र के साथ चले गए। 

(वायु पुराण से)
‘राजा पाकेट बुक्स’ द्वारा प्रकाशित ‘पुरानों की कथाएं’ से साभार)
 


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Niyati Bhandari

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