Ram Navami 2021- असुर का भाई बना श्रीराम का प्यारा
punjabkesari.in Wednesday, Apr 21, 2021 - 09:32 AM (IST)
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Ram Navami 2021- बह्मा जी के मानसपुत्र महर्षि पुलस्त्य, पुलस्त्यजी के विश्रवा मुनि और विश्रवा मुनि की एक पत्नी से कुबेर, दूसरी से रावण, कुंभकर्ण तथा विभीषण हुए। रावण और कुंभकर्ण के साथ विभीषण जी भी कठोर तप करने लगे और जब ब्रह्मा जी इन्हें वरदान देने आए तो इन्होंने भगवान की अविचल भक्ति मांगी।
ब्रह्मा जी ‘तथास्तु’ कह कर चले गए। रावण ने असुरों की प्राचीन राजधानी लंका पर अधिकार किया और अपने भाइयों तथा अनुचरों के साथ वह वहीं रहने लगा। रावण को भजन-पूजन आदि से एक प्रकार का द्वेष था, परन्तु उसने अपने छोटे भाई को इन कामों से नहीं रोका।
विभीषण जी भगवान का भजन-पूजन करते रहते और चूंकि कुंभकर्ण सोया ही रहता था, अत: रावण की अनुपस्थिति में लंका का राजकार्य भी वही देखते थे। विभीषण जी बड़े भाई का पूरा आदर भी करते थे। अत: रावण जब सीता जी को चुरा लाया तब विभीषण जी ने बहुत समझाया परंतु रावण ने उनकी बात न मानी।
जब हनुमान जी लंका पहुंचे, तब रात्रि में जानकी जी को ढूंढते हुए उन्हें विभीषण जी का घर दिखाई पड़ा जिसके निकट भगवान का मंदिर बना था। घर की दीवारों पर चारों ओर भगवान का मंगलमय नाम सुंदर अक्षरों में अंकित था। तुलसी के नवीन वृक्ष घर के सामने लगे थे।
हनुमान जी आश्चर्य में पड़ गए कि लंका में यह भगवद् भक्त जैसा घर किसका है। उसी समय रात्रि के चौथे प्रहर के प्रारंभ में ही विभीषण जी की निद्रा टूटी। वह जागते ही भगवान का स्मरण कीर्तन करने लगे।
हनुमान जी उन्हें ‘साधु’ समझ कर ब्राह्मण के वेश में उनके पास गए। ब्राह्मण को देख कर विभीषण जी ने बड़े आदर से उन्हें प्रणाम किया।
हनुमान जी ने जब विभीषण जी को अपना परिचय दिया, तब उन्होंने कहा, ‘‘सूर्य कुल के नाथ श्री रामचंद्र जी क्या मुझे अनाथ जानकर मुझ पर कभी कृपा करेंगे?’’
हनुमान जी ने उन्हें आश्वासन दिया और उनके समक्ष प्रभु के कोमल स्वभाव का वर्णन किया। विभीषण जी से पता पाकर ही हनुमान जी ने अशोक वाटिका में जाकर जानकी जी से बात की।
मेघनाद जब हनुमान जी को नागपाश से बांध कर राजसभा में ले आया और रावण ने उनके वध की आज्ञा दी तब विभीषण जी ने ही हनुमान जी की रक्षा की थी।
लंका जला कर हनुमान जी के लौट जाने के बाद सभी राक्षस भय से सशंकित रहने लगे।
एक दिन समाचार मिला कि श्री राम बहुत बड़ी वानरी सेना लेकर समुद्र के उस पार आ पहुंचे हैं। यह सूचना मिलने पर जब रावण अपनी राजसभा में आगे के कर्तव्य का निश्चय करने बैठा और चाटुकार मंत्री उसकी झूठी प्रशंसा करने लगे तो उस समय विभीषण जी ने रावण को प्रणाम करके नम्रतापूर्वक कहा था, ‘‘स्वामी! परस्त्री के ललाट को चौथ के चंद्रमा की तरह त्याग दें (अर्थात जिस तरह लोग चौथ के चंद्रमा को नहीं देखते उसी प्रकार पराई स्त्री का मुख ही न देखें)। चौदहों भुवनों का स्वामी भी जीवों से शत्रुता करके नष्ट हो जाता है। काम, क्रोध, मद और मोह ये सब नरक के रास्ते हैं। इन्हें छोड़कर श्री रामचंद्र जी को भजिए।’’
इतनी नीति बताकर भगवान श्री राम के स्वरूप का वर्णन करते हुए विभीषण जी ने कहा, ‘‘श्री राम मनुष्यों के ही राजा नहीं हैं। वह समस्त लोकों के स्वामी हैं। वह (सम्पूर्ण) ऐश्वर्य, यश, श्री, धर्म, वैराग्य एवं ज्ञान के भंडार हैं, उन कृपा-सिंधु ने पृथ्वी, ब्राह्मण, गौ और देवताओं के हित के लिए ही मनुष्य शरीर धारण किया है। वह सेवकों को आनंद देने वाले, दुष्टों का नाश करने वाले और वेद तथा धर्म की रक्षा करने वाले हैं। शत्रुता त्यागकर उन्हें मस्तक नवाइए।’’
‘‘श्री रघुनाथ जी शरणागत का दुख नाश करने वाले हैं। उन प्रभु को जानकी जी लौटा दीजिए। जिसे सम्पूर्ण जगत से द्रोह करने का पाप लगा है, शरण में जाने पर प्रभु उसका भी त्याग नहीं करते।’’
रावण के सिर पर तो काल नाच रहा था। उसे ऐसी कल्याणकारी शिक्षा अच्छी नहीं लगी। भरी सभा में विभीषण जी को लात मार कर उसने लंका से निकल जाने की आज्ञा दे दी। इतना अपमान सह कर भी विभीषण जी ने उसे प्रणाम किया और तब भी कहा, ‘‘आप मेरे पिता के समान हैं, मुझे मारा सो अच्छा ही किया परंतु हे नाथ, आपका भला श्री राम जी को भजने में ही है।’’
इसके बाद मंत्रियों को साथ लेकर विभीषण जी आकाश मार्ग से भगवान के पास पहुंचने के लिए चल पड़े। विभीषण जी समुद्र के पार पहुंचे और प्रभु श्री राम को जब उनके आने का संदेश मिला तो सुग्रीव ने आशंका व्यक्त की परंतु प्रभु की आज्ञा से हनुमान जी तथा अंगद बड़े आदर से विभीषण जी को प्रभु के पास ले गए।
राघवेंद्र की अनुपम शोभा देख कर विभीषण जी निहाल हो गए। उन्होंने अपना परिचय दिया और भूमि पर प्रणाम करते हुए प्रभु श्री राम के चरणों पर गिर पड़े।
श्री राघवेंद्र ने तत्काल विभीषण जी को उठाकर हृदय से लगा लिया। उसी दिन सर्वेश्वर श्री राम ने सागर के जल से विभीषण को लंका के राज्य पर अभिषिक्त कर दिया। लंकेश तो वह उसी दिन हो गए। रावण से युद्ध हुआ और राक्षसराज अपने समस्त परिकरों के साथ मारा गया। विभीषण जी को लंका के सिंहासन पर बैठाकर तिलक करने की विधि भी पूरी हो गई।