Pradosh Vrat 2021: जानें, शिविंलग की उत्पत्ति कैसे हुई?
punjabkesari.in Thursday, Dec 16, 2021 - 09:24 AM (IST)

शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ
Pradosh Vrat December 2021: आज प्रदोष व्रत के शुभ अवसर पर जानें, शिविंलग की उत्पत्ति कैसे हुई? इस विषय में लिंग पुराण में यह कथा मिलती है-
एक बार विष्णु जी और ब्रह्मा जी में इस बात को लेकर कि परमेश्वर कौन है, विवाद चल पड़ा। उनमें परस्पर वाद-विवाद हो ही रहा था कि अति प्रकाशमान ज्योर्तिलिंग उत्पन्न हुआ। उस लिंग के प्रादुर्भाव को देख कर दोनों ने उसे अपनी कलह-निवृत्ति का साधन समझ यह निश्चय किया कि जो कोई इस लिंग के अंतिम भाग को स्पर्श करेगा, वही परमेश्वर है। वह लिंग नीचे और ऊपर दोनों ओर था। ब्रह्मा जी तो हंस बनकर लिंग का अग्र भाग ढूंढने के लिए ऊपर की ओर उड़े तथा विष्णु जी ने वराह बनकर लिंग के नीचे की ओर प्रवेश किया। इसी भांति दोनों हजारों वर्ष तक चलते रहे परंतु लिंग का अंत न पाया। तब दोनों लौट आए और बार-बार उस परमेश्वर को प्रणाम कर विचार करने लगे कि यह क्या है जिसका कहीं न अंत है न आदि।
विचार करते-करते एक और प्लुतस्वर से ॐ ॐ शब्द सुनाई पड़े।
शब्द की खोज करके लिंग के दक्षिण ओर देखा तो ओंकार रूप शिव दिखे। भगवान विष्णु ने शिव की स्तुति की। स्तुति को सुनकर महादेव जी प्रसन्न हो कर कहने लगे, ‘‘हम तुमसे प्रसन्न हैं। तुम भय छोड़कर हमारे दर्शन करो। तुम दोनों ही हमारी देह से उत्पन्न हुए हो। सम्पूर्ण सृष्टि को उत्पन्न करने वाले ब्रह्मा हमारे दक्षिण अंग से और विष्णु वाम अंग से उत्पन्न हुए हैं।’’
शिविंलग शिव से निराकार और रूप का प्रतीक हैं। वह साक्षात ब्रह्मा का प्रतीक हैं क्योंकि शिव ही परब्रह्म हैं। यह चिन्ह स्वरूप हैं। सारी सृष्टि शिविंलग के अंतर्गत ही है। लिंग में सारी सृष्टि का लय होता है।
स्कंद पुराण में कहा गया है कि :
आकाशं लिंगमित्याहु: पृथिवी तस्य पीठिका।
आलय: सर्वदेवानां लयनालिंगमुच्यते।।
शिव पुराण में लिंग शब्द की व्याख्या इस प्रकार है :
लिंगमर्थ हि पुरुषं शिवं गमयतीत्यद:।
शिवशक्त्योश चिह्स्य मेलनं लिंगमुच्यते।
वस्तुत : शिविंलग को सम्पूर्ण विश्व माना जाता है। वह शिवशक्ति मय, त्रिगुणमय और त्रिदेवमय भी है इसलिए यह सबके लिए उपास्य है। सृष्टि के प्रारम्भ में ही समस्त देवता, ऋषि, असुर, मनुष्यादि लिंग की उपासना करते आए हैं। स्कंद पुराण के अनुसार इसकी उपासना से इंद्र, वरुण, कुबेर, सूर्य, चंद्र आदि का स्वर्गाधिपत्य, राज-राजाधिपत्य, दिक्पाल पद, लोकपाल पद, प्राजापत्य पद तथा पृथ्वी पर राजाओं के सार्वभौम चक्रवर्ती साम्राज्य की प्राप्ति होती है। मार्कंडेय लोमेश आदि ऋषियों का ज्ञान-विज्ञान तथा अणिमादिक अष्ट ऐश्वर्यों की सिद्धि का मूल कारण योगयोगेश्वर भगवान शंकर के मूल प्रतीक लिंग का पूजन ही है।