मकर संक्रांति पर चलें मंदार, कई धार्मिक कहानियां जुड़ी हैं शिव-पार्वती के प्रिय स्थान से

punjabkesari.in Tuesday, Jan 10, 2017 - 11:37 AM (IST)

हमारी संस्कृतियों से जुड़ा है मंदार जो भागलपुर जिले के मुख्यालय से करीब 45 किलोमीटर दक्षिण में स्थित है। यह सड़क मार्ग भागलपुर दुमका एवं रेलमार्ग भागलपुर मंदार हिल दोनों से जुड़ा है। पुराणों के अनुसार देव एवं दानवों ने इससे क्षीर सागर मथा था जिसमें वासुकि नाग का उपयोग रस्से के रूप में किया गया। इस मंथन से अमृत और विष निकले।


इस पर्वत को मंदरगिरि से भी अभिहित किया जाता है और मंदराचल से भी जो करीब 800 फुट ऊंचा है। यह हमारी प्राचीनतम संस्कृति का तीर्थ है। बद्रीनाथ की यात्रा उपरांत सनातन धर्मानुयायी यहां के पर्वत की तलहटी में स्थित पवित्र ‘पापहरिणी सरोवर’ में पाप मुक्ति के लिए स्नान करते हैं तथा तत्पश्चात भगवान मंदार मधुसूदन की पूजा-अर्चना और अंत में मंदार का परिदर्शन करते हैं।


‘पापहरिणी सरोवर’ की खुदाई गुप्तकाल में मगधनेश आदित्य सेन की धर्मपत्नी ने 672 में कराई थी। श्रद्धालुओं की धारणा है कि इसमें स्नान करने से कुष्ठरोग दूर हो जाता है। कहा जाता है कि आदित्य सेन की पत्नी रानी कोनी देवी ने इस पर्वत पर एक सरोवर का निर्माण कराया था। 


‘पद्म पुराण’ के अनुसार इस पर्वत का अस्तित्व पृथ्वी से पृथक है। जिस समय सम्पूर्ण संसार जलमग्न था उस समय आदि शक्ति भगवती की योगमाया से जल में एक ज्योतिपुंज उभरा जिससे उत्पन्न हुए नारायण। वह भगवती पर विमुग्ध होकर जल में ही निद्रायमाण हो गए। उनकी (नारायण की) नाभि से एक कमल प्रस्फुटित हुआ जिसके पराग से ब्रह्मा जन्मे। वह यंत्र-तंत्र जल देखकर कमल की जड़ की ओर बढ़ते-बढ़ते नारायण की नाभि तक पहुंच गए जिससे मधु कैटभ की उत्पत्ति हुई। उसने ब्रह्मा का जब वध करना चाहा तो उन्होंने नारायण को गुहार की जिन्होंने जंघा पर मधु कैटभ को रख कर उसका वध कर दिया। ‘नरसिंह पुराण’ के अनुसार उसी कारण विष्णु का एक नाम ‘मधुसूदन’ पड़ा। पौराणिक मान्यता है कि मधु के मस्तक भाग से मंदार बना एवं शेष से पृथ्वी।


पुराणों के ही अनुसार शाम होने पर जब इंद्र की शक्ति शिथिल पड़ गई तो दैत्यराज बलि देवताओं का दोहर करने लगा। उन्होंने (देवताओं ने) गुरु बृहस्पति के विचार से तदर्थ विष्णु की गुहार की जिन्होंने समुद्र मंथन का विचार दिया। उससे रिद्धि-सिद्धि एवं महालक्ष्मी प्राप्त कर इंद्र पुन:श्री सम्पन्न हो गए परंतु अभिशाप मिलने पर रिद्धि-सिद्धि तथा महालक्ष्मी क्षीरसागर में समा गई।


कहा जाता है कि नारायण से उद्धार का आश्वासन पाकर मंदार जब समुद्र मंथन के लिए मथनी बनने को राजी हुआ तो देव एवं दानवों ने इसे समुद्र तक पहुंचाया परंतु ब्रह्मांड पुराण, भागवत पुराण, मत्स्य पुराण, विष्णु पुराण, इत्यादि के अनुसार जब देव दानव इसे समुद्र तक पहुंचाने में असमर्थ सिद्ध हुए तो विष्णु की आज्ञा से गरुड़ अपनी पीठ पर लाद कर ले गया। यह समुद्र में डूब न जाए, इसके लिए विष्णु स्वयं कूर्मरूप धारण कर इसके आधार बने। समुद्र मंथन के बाद इसे यहां पहुंचा दिया गया। इसने अपने उद्धार के लिए जब विष्णु से बराबर दर्शन देते रहने के लिए अनुनय विनय किया तो उन्होंने यहां मधुसूदन के रूप में वास करना स्वीकार लिया। मान्यता है कि उसी समय से देवगण मकर संक्रांति के अवसर पर यहां आकर विष्णु से मिलते हैं जो यहां के कुलदेवता के रूप में पूजित अर्चित होते हैं। 


1599 ई. में यहां से विष्णु की मूर्त हटाकर पर्वत के नीचे पूरब की ओर स्थित मंदिर में कर दी गई एवं बाद में तीन किलोमीटर दूर बौंसी गांव के एक मंदिर में जिसका जीर्णोद्धार कराया खडग़पुर के जमींदार ठाकुर रूप नारायण देव ने। 


‘मत्स्य पुराण’ के अनुसार मंदार शिव को अति प्रिय है। उन्होंने पार्वती से परिणय के पश्चाय यहां कुछ दिन बिताए थे। मेरू के चारों ओर की गिरियों में एक यह पर्वत पहले घने जंगलों से घिरा था जहां सभी उद्यान मालती, इंद्रवन, कामाख्यावन, कुवेरवन, कमलावन, रेणुकावन, शकुनवन इत्यादि भी थे।


भागवत पुराण (4.23.24)  के अनुसार भद्राश्रव वर्ष और चैत्ररथ उद्यान यहीं हैं। यहीं महाराज पृथु की मृत्यु हुई और मृतक कर्म भी। यहां इंद्राणी उद्यान का भी प्रमाण मिलता है। करीब चार दशक पूर्व तक इस पर्वत का भू भाग अत्यंत सुरम्य था। ‘भागवत पुराण’ के ही अनुसार करीब 1650 ऊंचे एक दिव्य वृक्ष से पहाड़ की चोटी के बराबर, आम फल इस पर्वत को प्राप्त हुआ था।


कुछ इतिहासकारों के अनुसार सागर-मंथन की मथानी मंदार दक्षिण भारत का मन्नार पर्वत है। विख्यात इतिहासवेता प्रो.वीरने के अनुसार यहां के पापहरिणी सरोवर के सामने से पर्वत के शिखर तक की सर्पाकार सीढिय़ां राजा उग्रसेन ने बनवाई थीं। पर्वत के शिखर पर दस भुजा भगवती, भगवान नर सिंह, गणेश, महाकाल भैरव, महावीर इत्यादि की मूर्तियां हैं एवं विष्णु, लक्ष्मी तथा सरस्वती के पद चिन्ह, जिनमें प्रथम अर्थात दसभुजा भगवती पैने दांतों वाली हैं और अस्त्र-शस्त्र से सुशोभित।


पुरातत्व विदों ने इसे सातवीं शताब्दी की महाकाली की प्रतिमा मानी है। मूर्त के नीचे पुरुषाकृति है और गले में मुंडमाला। नरसिंह की प्रतिमा का निर्माण राजा आदित्य सेन ने कराया।


मकर संक्रांति के दिन यहां बौंसी से मधुसूदन की मूर्त जुलूस के साथ लाई जाती है। उक्त अवसर पर यहां एक मास तक ‘मंदार बौंसी मेला’ लगता है जो अंग, बंग और आदिवासी संस्कृतियों का मिलन स्थल होता है। विशेषत: आदिवासियों के रीति-रिवाज, रहन-सहन, बोलचाल इत्यादि सामाजिक एवं सांस्कृतिक परम्पराओं से परिचित होने जिज्ञासुगण यहां आते हैं।


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