Maharaja Agrasen Jayanti: महाराजा अग्रसेन के 18 यज्ञ से पैदा हुए 18 पुत्र अग्रवाल समाज के बने 18 गोत्र, पढ़ें शास्त्रों का वर्णन
punjabkesari.in Saturday, Sep 20, 2025 - 06:36 AM (IST)

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Maharaja Agrasen Jayanti 2025: ‘अग्रवाल समुदाय’ पिछले 5100 वर्षों से भारत के सर्वाधिक सम्मानित उद्यमी समुदायों में से एक रहा है। देश भर में असंख्य गौशालाएं, सामुदायिक भवन, धर्मशालाएं, काफी हद तक अग्रवाल समाज के सहयोग से चल रही हैं। अग्रवाल समाज ने न केवल अपनी मेहनत से देश को आर्थिक मजबूती दी है, बल्कि देश की आजादी में भी इस समाज का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। ‘पंजाब केसरी’ लाला लाजपत और राष्ट्रपिता महात्मा गांधी भी अग्रवाल समाज से हैं।
महाराजा अग्रसेन त्याग, अहिंसा, शांति तथा समृद्धि के प्रतीक समाजसेवी अवतार थे। उनका जन्म प्रताप नगर के राजा वल्लभ के घर में हुआ। खांडवप्रस्थ के राजा ययाति के वंशज और राजा शूरसेन के बड़े भाई थे जो बलराम और भगवान श्री कृष्ण के दादा थे। महालक्ष्मी व्रत अनुसार उस वक्त द्वापर युग का अंतिम चरण था। उन्होंने बचपन में ही वेदों, शास्त्रों, अस्त्रों-शस्त्रों, राजनीति तथा अर्थशास्त्र का ज्ञान प्राप्त कर लिया था।
अग्रसेन जी की महारानी माधवी थीं। वह नागराज कुमुद की पुत्री थी। वे इतनी सुंदर थी की उनके सौंदर्य पर इंद्र देवता भी मोहित थे। अग्रसेन जी ने राज्य तथा प्रजा के कल्याण हेतु 18 यज्ञ किए जिनसे उनके 18 पुत्र पैदा हुए। उन्हीं के नाम से अग्रवाल समाज के 18 गोत्र बने। कहा जाता है कि 17 यज्ञ विधि-विधान से निर्विघ्न सम्पन्न हुए परन्तु 18वें यज्ञ से पहले उनके मन में आया कि इस पवित्र कार्य में पशु बलि जैसा अपवित्र कार्य क्यों? उन्होंने घोषणा की कि भविष्य में यज्ञ जैसे पवित्र कार्यों में पशु बलि के स्थान पर नारियल तोड़ कर पूर्णाहुति दी जाएगी। कहा जाता है कि महाराजा तथा उनके वंशजों ने बाद में वैश्य समुदाय स्वीकार कर लिया था। इसके पीछे देवी महालक्ष्मी जी का वरदान तथा पशु बलि के प्रति उनकी अरुचि ही मुख्य कारण थी।
सभी क्षेत्रों में कुशल बनने के बाद उनका विवाह नागों के राजा कुसुद की पुत्री माधवी के साथ हुआ। अग्रसेन जी अपने पिता की आज्ञा से नागराज कुमुट की कन्या माधवी के स्वयंवर में गए। राजकुमारी ने युवराज अग्रसेन के गले में वरमाला डालकर उनका वरण किया। इसे देवराज इंद्र ने अपना अपमान समझा और वह इनसे कुपित हो गए जिससे इनके राज्य में सूखा पड़ गया और जनता में त्राहि-त्राहि मच गई। प्रजा के कष्ट निवारण के लिए अग्रसेन जी ने अपने आराध्य देव शिव की उपासना की। इससे प्रसन्न होकर शिवजी ने इन्हें वरदान दिया तथा प्रतापगढ़ में सुख-समृद्धि एवं खुशहाली लौटाई।
राजा वल्लभ ने संन्यास लेकर अग्रसेन जी को शासन की बागडोर सौंप दी। उन्होंने कुशलता के साथ राज्य का संचालन किया और इसका विस्तार करते हुए प्रजा के हितों के लिए काम किया। वह बहुत धार्मिक प्रवृत्ति के थे। उन्होंने अपने जीवन में कई बार देवी लक्ष्मी जी से यह वरदान हासिल किया कि जब तक उनके कुल में देवी लक्ष्मी की आराधना होती रहेगी तब तक अग्रकुल धन-धान्य से खुशहाल रहेगा।
देवी लक्ष्मी जी के आशीर्वाद से अग्रसेन जी ने नए राज्य के लिए रानी माधवी के साथ भारत-भ्रमण शुरू किया। अपने भ्रमण के दौरान वह एक स्थान पर रुके जहां उन्होंने देखा कि शेर तथा भेड़िए के कुछ शावक खेल रहे थे। उन्होंने रानी माधवी को कहा कि यह बहुत शुभ संकेत है और यह क्षेत्र वास्तव में वीरभूमि है। उन्होंने इस भूमि को अग्रोहा नाम दिया और यहीं पर अपना राज्य बनाने का निर्णय लिया। आगे चलकर अग्रोहा कृषि तथा व्यापार के क्षेत्र में एक प्रसिद्ध स्थान बन गया। उन्होंने अग्रसेन नगर की स्थापना करी थी। जो वर्तमान समय में आज के हरियाणा का अग्रोहा है। वे अहिंसा, समानता और उदारता के प्रतीक थे। उन्होंने युद्ध छोड़कर वैश्य धर्म अपनाया और व्यापार तथा सेवा को जीवन का आधार बनाया।
महालक्ष्मी के आशीर्वाद से भगवान अग्रसेन ने महाभारत के युद्ध से 51 साल पहले ‘अग्रोहा’ में एक बहुत समृद्ध और विकसित राज्य का निर्माण किया जिसका उल्लेख महाभारत में मिलता है। इन्होंने अपने राज्य को हिमालय, पंजाब, यमुना की तराई और मेवाड़ क्षेत्र तक बढ़ाया। भगवान अग्रसेन ने वानिक धर्म का पालन किया और यज्ञ में पशुओं के वध से इंकार किया। उनके ज्येष्ठ पुत्र विभु थे। उन्होंने 18 महायज्ञों का आयोजन किया। उसके बाद उन्होंने अपने 18 बच्चों के बीच अपने राज्य को विभाजित किया।
अपने प्रत्येक बच्चों के गुरु के नाम से 18 गोत्रों गर्ग, गोयल, गोयन, बंसल, कंसल, सिंघल, मंगल, जिंदल, तिंगल, ऐरण, धारण, मुधुकुल, बिंदल, मित्तल, तायल, भंदल, नागल, कुच्छल की स्थापना की। अग्रोहा राज्य की 18 राज्य इकाइयां थीं। प्रत्येक राज्य की इकाई को एक गोत्र से अंकित किया गया था। उस विशेष राज्य इकाई के सभी निवासियों की उस गोत्र द्वारा पहचान की गई। भगवान अग्रसेन ने ऐलान किया कि वैवाहिक गठबंधन एक ही गोत्र में नहीं हो सकता है।
भगवान अग्रसेन का भगवा ध्वज अहिंसा और सूर्य का प्रतीक है तथा सूर्य की 18 किरणें 18 गोत्रों का प्रतिनिधित्व करती हैं। ध्वज में चांदी के रंग की एक ईंट और एक रुपया वैभव, भाईचारे एवं परस्पर सहयोग का प्रतिनिधित्व करते हैं।