Kanwar yatra: ये है सावन का अनोखा अनुष्ठान, शिवपूजन और कांवड़ यात्रा की जानकारी के लिए पढ़ें...
punjabkesari.in Friday, Jul 19, 2024 - 11:14 AM (IST)
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Kanwar yatra 2024: सावन को शिव का प्रिय मास माना जाता है इसलिए श्रावण मास में देश के विभिन्न हिस्सों में स्थित ज्योर्तिलिंगों के विशेष अभिषेक की परम्परा सदियों से है। इस माह दुग्ध, घी, शहद व पवित्र नदियों से लाए गए जल से शिवलिंग का अभिषेक किया जाता है। शिव भक्त हरिद्वार, गोमुख तथा अन्य पवित्र स्थलों से कांवड़ में गंगाजल भर कर लाते हैं। इस परम्परा को हम ‘कांवड़ यात्रा’ के नाम से जानते हैं। श्रावण की शिवरात्रि पर इस जल से श्रद्धालुजन एक अनुष्ठान के रूप में शिवलिंग का अभिषेक करते हैं। सम्पूर्ण उत्तर भारत में कांवड़-यात्रा के माध्यम से शिव में जन आस्था के दर्शन होते हैं। इस अवसर पर श्रद्धालुजन तन पर केसरिया वस्त्र धारण कर तथा कंधे पर कांवड़ उठाए कई किलोमीटर की पैदल यात्रा करते हुए सड़कों पर दिखाई देते हैं। उनकी इस साहसिक यात्रा का एक ही लक्ष्य ‘शिवलिंग का जलाभिषेक’ होता है।
Kanwar yatra 2024: सावन को शिव का प्रिय मास माना जाता है इसलिए श्रावण मास में देश के विभिन्न हिस्सों में स्थित ज्योर्तिलिंगों के विशेष अभिषेक की परम्परा सदियों से है। इस माह दुग्ध, घी, शहद व पवित्र नदियों से लाए गए जल से शिवलिंग का अभिषेक किया जाता है। शिव भक्त हरिद्वार, गोमुख तथा अन्य पवित्र स्थलों से कांवड़ में गंगाजल भर कर लाते हैं। इस परम्परा को हम ‘कांवड़ यात्रा’ के नाम से जानते हैं। श्रावण की शिवरात्रि पर इस जल से श्रद्धालुजन एक अनुष्ठान के रूप में शिवलिंग का अभिषेक करते हैं। सम्पूर्ण उत्तर भारत में कांवड़-यात्रा के माध्यम से शिव में जन आस्था के दर्शन होते हैं। इस अवसर पर श्रद्धालुजन तन पर केसरिया वस्त्र धारण कर तथा कंधे पर कांवड़ उठाए कई किलोमीटर की पैदल यात्रा करते हुए सड़कों पर दिखाई देते हैं। उनकी इस साहसिक यात्रा का एक ही लक्ष्य ‘शिवलिंग का जलाभिषेक’ होता है।
Kanwar yatra Prevailing beliefs प्रचलित मान्यताएं
इस यात्रा के दौरान कांवड़ियों के मुख से निकले बम-बम भोले के उद्घोष से सारा वातावरण शिवमय हो जाता है। वैसे तो कांवड़ यात्रा के संबंध में हिंदू धर्मग्रंथों में कहीं स्पष्ट रूप से उल्लेख नहीं मिलता किंतु इस परम्परा की शुरूआत आदिकाल से मानी जाती है। इस संदर्भ में कुछ मान्यताएं प्रचलित हैं। किंवदंती है कि सुर-असुरों द्वारा किए गए समुद्र मंथन से समुद्र से विष निकला। इससे सम्पूर्ण ब्रह्मांड के नष्ट होने का खतरा उत्पन्न हो गया। शंकर ने तब विष पीकर ब्रह्मांड को तो बचा लिया किंतु उनका कंठ नीला हो गया तथा उनके शरीर से ऊष्मा प्रस्फुटित होने लगी।
विष एवं ऊष्मा का प्रभाव शांत करने के लिए भोलेनाथ ने गंगा की एक धारा में जलावतरण किया। इससे उस धारा का जल भी नीला पड़ गया था। जलधारा से उनकी ऊष्मा तो शांत हो गई लेकिन कंठ हमेशा के लिए नीला हो गया इसलिए भगवान शिव को नीलकंठ भी कहते हैं। आज उस धारा को नीलधारा के नाम से जाना जाता है। यह पवित्र धारा आज भी हरिद्वार के निकट बह रही है। कहा जाता है कि स्कंद पुराण में भी इसी नीलधारा का वर्णन किया गया है।
विष के प्रभाव से पूरी तरह मुक्त होने के लिए भगवान शिव ने जिस पर्वत पर साधना की, वह पर्वत नीलकंठ पर्वत कहलाता है। नीलकंठ पर्वत के जिस स्थल पर भगवान शिव ने साधना की उस स्थल पर पंकजा व नर्मलजा नाम की दो हिम सरिताओं ने सैंकड़ों वर्षों तक शिव का जलाभिषेक किया, तब इसके बाद ही भगवान शिव विष प्रभाव से मुक्त हुए। यह मान्यता है कि भोले शंकर जलाभिषेक से प्रसन्न होते हैं।
इस यात्रा के दौरान कांवड़ियों के मुख से निकले बम-बम भोले के उद्घोष से सारा वातावरण शिवमय हो जाता है। वैसे तो कांवड़ यात्रा के संबंध में हिंदू धर्मग्रंथों में कहीं स्पष्ट रूप से उल्लेख नहीं मिलता किंतु इस परम्परा की शुरूआत आदिकाल से मानी जाती है। इस संदर्भ में कुछ मान्यताएं प्रचलित हैं। किंवदंती है कि सुर-असुरों द्वारा किए गए समुद्र मंथन से समुद्र से विष निकला। इससे सम्पूर्ण ब्रह्मांड के नष्ट होने का खतरा उत्पन्न हो गया। शंकर ने तब विष पीकर ब्रह्मांड को तो बचा लिया किंतु उनका कंठ नीला हो गया तथा उनके शरीर से ऊष्मा प्रस्फुटित होने लगी।
विष एवं ऊष्मा का प्रभाव शांत करने के लिए भोलेनाथ ने गंगा की एक धारा में जलावतरण किया। इससे उस धारा का जल भी नीला पड़ गया था। जलधारा से उनकी ऊष्मा तो शांत हो गई लेकिन कंठ हमेशा के लिए नीला हो गया इसलिए भगवान शिव को नीलकंठ भी कहते हैं। आज उस धारा को नीलधारा के नाम से जाना जाता है। यह पवित्र धारा आज भी हरिद्वार के निकट बह रही है। कहा जाता है कि स्कंद पुराण में भी इसी नीलधारा का वर्णन किया गया है।
विष के प्रभाव से पूरी तरह मुक्त होने के लिए भगवान शिव ने जिस पर्वत पर साधना की, वह पर्वत नीलकंठ पर्वत कहलाता है। नीलकंठ पर्वत के जिस स्थल पर भगवान शिव ने साधना की उस स्थल पर पंकजा व नर्मलजा नाम की दो हिम सरिताओं ने सैंकड़ों वर्षों तक शिव का जलाभिषेक किया, तब इसके बाद ही भगवान शिव विष प्रभाव से मुक्त हुए। यह मान्यता है कि भोले शंकर जलाभिषेक से प्रसन्न होते हैं।
Fair in Haridwar हरिद्वार में मेला
कांवड़ यात्रा का भव्यतम रूप उत्तराखंड में स्थित हरिद्वार में देखा जा सकता है। अधिकांश कांवड़िए यहां से ही गंगाजल लेकर चलते हैं, लेकिन कुछ साहसी कांवड़िए गोमुख से भी जल लेकर आते हैं इसलिए हरिद्वार में इन दिनों कुंभ मेले जैसा माहौल बन जाता है। इसके अलावा रोड़ी बेलवाला व मायापुर पर भी कांवड़ियों के रेले देखे जा सकते हैं। उस समय हरिद्वार से लेकर दिल्ली तक सड़क के एक ओर कांवड़ियों की कतारें चलती हैं। यह क्रम दिन-रात देखने को मिलता है। सावन मास के आरंभ से ही हरिद्वार में कांवड़ बनाने व उन्हें सजाने का कारोबार जोरों से चलने लगता है। हर की पौड़ी के निकट पंतद्वीप से रोड़ी बेलवाला तक विशाल कांवड़ बाजार सजता है।
Kanwar yatra rules नियमों का पालन
कांवड़ यात्रा कड़े नियमों से की जाती है। एक बांस के दो छोरों पर टोकरी में या रस्सी द्वारा लटका कर गंगाजल के पात्रों को कंधों पर रख कर चलना पड़ता है। श्रद्धा व लगाव के कारण ही वे कांवड़ का पूरा शृंगार करते हैं। कांवड़ पात्र में गंगाजल भरने से पहले गंगा मां की पूजा भी की जाती है। कांवड़ धारण करने के बाद समस्त मार्ग में कांवड़ को भूमि पर नहीं रखते। इससे जुड़ा एक कठिन नियम यह भी है कि इसे वक्ष से नीचे लेकर नहीं चलते। कंधा बदलने के लिए भी कांवड़ को पीठ की ओर से ले जाना होता है। मार्ग में विश्राम करना हो तो कांवड़ को किसी ऊंचे स्थान पर रखना होता है। अपने-अपने निर्धारित स्थानों पर पहुंच कर कांवड़िए स्थानीय मंदिरों में शिवलिंग पर जलाभिषेक करते हैं।
कांवड़ यात्रा कड़े नियमों से की जाती है। एक बांस के दो छोरों पर टोकरी में या रस्सी द्वारा लटका कर गंगाजल के पात्रों को कंधों पर रख कर चलना पड़ता है। श्रद्धा व लगाव के कारण ही वे कांवड़ का पूरा शृंगार करते हैं। कांवड़ पात्र में गंगाजल भरने से पहले गंगा मां की पूजा भी की जाती है। कांवड़ धारण करने के बाद समस्त मार्ग में कांवड़ को भूमि पर नहीं रखते। इससे जुड़ा एक कठिन नियम यह भी है कि इसे वक्ष से नीचे लेकर नहीं चलते। कंधा बदलने के लिए भी कांवड़ को पीठ की ओर से ले जाना होता है। मार्ग में विश्राम करना हो तो कांवड़ को किसी ऊंचे स्थान पर रखना होता है। अपने-अपने निर्धारित स्थानों पर पहुंच कर कांवड़िए स्थानीय मंदिरों में शिवलिंग पर जलाभिषेक करते हैं।
Station Information Haridwar Junction स्टेशन की जानकारी हरिद्वार जंक्शन
दिल्ली-देहरादून तथा हावड़ा-देहरादून रेलमार्ग पर स्थित है। उत्तर रेलवे क्षेत्र के मुरादाबाद संभाग के अंतर्गत यह एक महत्वपूर्ण रेलवे स्टेशन है। इस रेलवे जंक्शन की उत्तर दिशा में 66 कि.मी. दूर उत्तराखंड का देहरादून तथा पश्चिम दिशा में 80 कि.मी. दूर उत्तर प्रदेश का अहम रेलवे स्टेश सहारनपुर स्थित है।
हरिद्वार रेल लाइन को 1906 में देहरादून तक बढ़ाया गया। इस रेलवे स्टेशन में नौ प्लेटफार्म हैं। यहां 45 रेलगाड़िया रुकती हैं तथा 29 बनकर चलती हैं। आजकल डाक कांवड़, झूला कांवड़ एवं मोबाइल कांवड़ जैसे नवीन प्रकार देखने को मिल रहे हैं।