जीवन में परोपकार करने से पहले जाने इसका सही अर्थ

punjabkesari.in Saturday, Nov 19, 2016 - 10:20 AM (IST)

किसी और के लिए जो कर्म बिना किसी स्वार्थ के किया जाता है, ऐसा कर्म ही परोपकार की सबसे सरल परिभाषा है अगर कोई आपसे कुछ मांगे तो जाहिर है कि उसे उस चीज की जरूरत है और ईश्वर की कृपा से वह चीज अगर आपके पास हो तो उसका योग्य रूप से पुनर्विभाजन करना आपका फर्ज है। एक साधक के लिए आत्मिक उन्नति का मार्ग एकमात्र मार्ग होता है। जिस पर चलकर वह उच्चतम लोकों में वास करने लायक दिव्य आत्मा बन पाए। आत्मिक उन्नति करने हेतु साधक जिस अष्टांग योग का अभ्यास करता है, उस अष्टांग योग के पांच यमों में से एक यम है अपरिग्रह अर्थात परोपकार। उदाहरण के तौर पर किसी ऐसे इंसान को ले लीजिए जिसने बहुत सारा पैसा दान में दिया हो और वह किसी समारोह में जाए। वह मंच पर सबके सामने उसके इस दान की घोषणा करता है। 

 

क्या आप इस इंसान के इस कर्म को दान कहेंगे? नहीं, यह सीधे रूप से एक व्यापार है। इस इंसान ने दान में दिए उस पैसे को स्वयं के लिए प्रशंसा और स्तुति खरीदने में इस्तेमाल कर दिया। उसने दान में दिए इस पैसे के बदले अपने लिए कुछ नाम और अहंकार की संतुष्टि खरीद ली है। परोपकार इस तरह किया जाना चाहिए कि दायां हाथ क्या कर रहा है यह खबर बाएं हाथ को न हो चूंकि बाएं हाथ को इस बात की खबर होने की कोई जरुरत ही नहीं है। जब कोई जरूरतमंद हमसे कुछ मांगे तो हमें उसे वह चीज दे देनी चाहिए। बिना यह सोचे कि वह व्यक्ति उस चीज का उपयोग कैसे करेगा। परोपकार करते समय जिसकी सहायता की जा रही है उसकी पात्रता का किसी भी हालात में फैसला नहीं किया जाना चाहिए।

 

हम हमेशा ऐसा सोचते हैं कि हमें ऐसे इंसान पर परोपकार नहीं करना चाहिए जो उस परोपकार का सही इस्तेमाल न करे। जब हमसे कोई कुछ मंगता है तो हम हमेशा यह जांचने का प्रयास करते हैं कि उस इंसान को उस परोपकार की सच में जरुरत भी है या नहीं, और इस जांच के उपरांत ही हम उस पर वह परोपकार करते हैं। वह इंसान जो आपसे परोपकार की अपेक्षा कर रहा है, आपके दिए गए दान का इस्तमाल कैसे करेगा यह सम्पूर्णतः उसका निर्णय है आपका नहीं।

 

भगवद गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि किसी भी जीव या कर्म की पात्रता का फैसला करना संपूर्णतः केवल मेरे हाथों में है। किसी और इंसान की पात्रता का मूल्यांकन करने के लिए सबसे पहले हमें खुद को परिपूर्ण बनाना आवश्यक होता है और हम यह तथ्य जानते हैं कि ईश्वर के अलावा अन्य कोई भी जीव परिपूर्ण नहीं है।
किसी जीव की पात्रता की जांच करना मन की एक अवस्था है और मन की यही अवस्था आपके परोपकार करने के कर्म में बाधा उत्पन्न कर सकती है। ऐसा परोपकार आप आपकी संतुष्टि हेतु करेंगे। इसी कारण से ऐसा दानकर्म एक व्यापार सामान ही है जिसमें आपने थोड़े से पैसों के बदले अपने लिए कुछ संतोष खरीद लिया।

 

हम सब महाभारत के कर्ण को भली भांति जानते हैं। वह रोज सुबह सूर्य देवता की पूजा करता था और पूजा के उपरांत अगर उससे कोई भी कुछ भी मांग लेता था तो वह उसे बिना जांचे-परखे वह चीज आसानी से दे देता था। अगर आपके पास कोई चीज है तो आपको स्वयं को भाग्यशाली समझना चाहिए कि आपके पास वह चीज है। जिसकी आवश्यकता किसी और को भी है और उसे आपसे वह चीज मांगनी पड़ रही है। अगर आपके पास कुछ है और वह दान में देने से पहले आप जिसे वह चीज दे रहे हैं उसकी सुपात्रता की आपको जांच करने की इच्छा है तो इसका सीधा अर्थ यह है कि आप उस चीज पर खुद का अधिकार मानते हैं और यह मानते हैं कि आपके पास किसी और की सुपात्रता जांचने का संपूर्ण अधिकार है। यह जीव को आसक्ति की ओर ले जाने वाला सबसे पहला कदम है जोकि सही नहीं है।

 

अब एक और प्रश्न ऐसा उठता है कि क्या परोपकार हमेशा आर्थिक स्वरुप में ही होता है? परोपकार केवल आर्थिक रूप में नहीं होता वह मीठे बोल बोलना, किसी की सहायता करना, किसी जरूरतमंद विद्यार्थी को पढ़ाना या किसी की निःस्वार्थ रूप से सेवा करने से भी किया जा सकता है। आपका काम केवल ईश्वर की शक्ति की प्रणाली के रूप में कर्म करना है, उन कर्मों से मिलने वाले फलों और आशीर्वादों की गिनती पर ध्यान देना नहीं। अगर आपको परोपकार करने से आंतरिक संतोष का अनुभव हो रहा हो तो इसका मतलब यह है कि आप इस भौतिक दुनिया पर अपना अधिकार मानते हैं। परोपकार करते समय आप में किसी भी तरह की भावनाएं उत्पन्न नहीं होनी चाहिए। इस परोपकार के कर्म के प्रति हमारी धारणा पैदल चलने के कर्म की धारणा के समान सामान्य होनी चाहिए। अगर आप पैदल चल रहें हैं तो आप यह कर्म केवल एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंचने के लिए करते हैं। पैदल चलते-चलते इस सैर के आप मजे तो बेशक ले सकते हैं किंतु उस सैर से आसक्ति रखना अनुचित है। अगर आप इस सैर से बंध गए तो आप उसी स्थान पर फंसकर रह जाएंगे और अपनी सैर का मूल उद्देश्य ही भूल जाएंगे।

 

साधना का मूल उद्देश्य आत्मिक उन्नति है और जैसे-जैसे आपकी आत्मिक उन्नति होती है, वैसे-वैसे ही आप आत्मिक उन्नति के शुंडाकार स्तंभ में ऊपर के स्तर की तरफ बढ़ने लगते हैं और इस स्तंभ के नीचे के स्तरों पर स्थित जीवों के उत्तरदायी बन जाते हैं। एक साधक यह उत्तरदायित्व स्वेच्छा से अपने ऊपर लेता है और ऐसी आत्मिक उन्नति की तरफ ले जाने वाला परोपकार के मार्ग का महत्त्वपूर्ण साधन है ।
योगी अश्विनी जी
www.dhyanfoundation.com


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