Holi 2020: मनोभावों की अभिव्यक्ति का पर्व होली और होलाष्टक

punjabkesari.in Monday, Mar 02, 2020 - 12:19 PM (IST)

शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ
फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी से होलिका दहन तक की अवधि को शास्त्रों में होलाष्टक कहा गया है जो इस साल 3 मार्च से 9 मार्च तक अर्थात होलिका दहन तक है। इन दिनों गृह प्रवेश, मुंडन संस्कार, विवाह संबंधी वार्तालाप, सगाई, विवाह, किसी नए कार्य, नींव आदि रखने, नया व्यवसाय आरंभ या किसी भी मांगलिक कार्य आदि का आरंभ शुभ नहीं माना जाता तथा सोलह संस्कार भी नहीं किए जाते। होलाष्टक के विषय में यह माना जाता है कि जब भगवान श्री भोले नाथ ने क्रोध में आकर कामदेव को भस्म कर दिया था, तो उस दिन से होलाष्टक की शुरूआत हुई थी। 
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ज्योतिष के अनुसार अष्टमी को चंद्रमा, नवमी को सूर्य, दशमी को शनि, एकादशी को शुक्र, द्वादशी को गुरु, त्रयोदशी को बुध, चतुर्दशी को मंगल तथा पूर्णिमा को राहु उग्र स्वभाव के हो जाते हैं। इन ग्रहों के निर्बल होने से मानव मस्तिष्क की निर्णय क्षमता क्षीण हो जाती है और इस दौरान गलत फैसले लिए जाने के कारण हानि होने की संभावना रहती है। इसे दूर रखने का उपाय भी ज्योतिष में बताया गया है। इन 8 दिनों में मन में उल्लास लाने और वातावरण को जीवंत बनाने के लिए लाल या गुलाबी रंग का प्रयोग विभिन्न तरीकों से किया जाता है। लाल परिधान मूड को गर्मा देते हैं यानी लाल रंग मन में उत्साह उत्पन्न करता है। इसीलिए उत्तर प्रदेश में आज भी होली का पर्व एक दिन नहीं अपितु 8 दिन तक मनाया जाता है। भगवान श्री कृष्ण भी इन आठ दिनों में गोपियों संग होली खेलते रहे और अंतत: होली में रंगे लाल वस्त्रों को अग्नि को समर्पित कर दिया। सो होली मनोभावों की अभिव्यक्ति का पर्व है। यह पर्व पारंपरिक रूप से दो दिन मनाया जाता है। पहले दिन होलिका दहन किया जाता है उसके अगले दिन रंग खेला जाता है। फाल्गुन मास में मनाए जाने के कारण होली को फाल्गुनी भी कहते हैं। 
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उत्तर प्रदेश, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, तमिलनाडू, गुजरात, महाराष्ट्र, उड़ीसा, गोवा आदि में अलग ढंग से होली मनाने का चलन है। जिन प्रदेशों में होलाष्टक से जुड़ी मान्यताओं को नहीं माना जाता है उन सभी प्रदेशों में होलाष्टक से होलिका दहन के मध्य अवधि में शुभ कार्य करने बन्द नहीं किए जाते हैं। होलिका पूजन करने के लिए होली से आठ दिन पहले होलिका दहन वाले स्थान को गंगाजल से शुद्ध कर उसमें सूखे उपले, सूखी लकड़ी, सूखी घास व होली का डंडा स्थापित कर दिया जाता है। जिस दिन यह कार्य किया जाता है, उस दिन को होलाष्टक प्रारम्भ का दिन भी कहा जाता है। जिस गांव, क्षेत्र या मोहल्ले के चौराहे पर पर यह होली का डंडा स्थापित किया जाता है, उसके बाद संबंधित क्षेत्र में होलिका दहन तक कोई शुभ कार्य संपन्न नहीं किया जाता। इस दिन सबसे पहले होलाष्टक शुरू होने वाले दिन होलिका दहन स्थान का चुनाव किया जाता है। इस दिन इस स्थान को गंगाजल से शुद्ध कर, इस स्थान पर होलिका दहन के लिए लकड़ियां एकत्र करने का कार्य आरंभ किया जाता है। इस दिन जगह-जगह जाकर सूखी लकड़ियां विशेष कर ऐसी लकड़ियां जो सूखने के कारण स्वयं ही पेड़ों से टूटकर गिर गई हों, उन्हें चौराहे पर एकत्रित कर लिया जाता है।होलाष्टक से लेकर होलिका दहन के दिन तक प्रतिदिन इसमें कुछ लकडिय़ां डाली जाती हैं। इस प्रकार होलिका दहन के दिन तक यह लकड़ियां का बड़ा ढेर बन जाता है व इस दिन से होली के रंग वातावरण में बिखरने लगते हैं अर्थात होली की शुरूआत हो जाती है।
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होलाष्टक से मिलती-जुलती होली की एक परम्परा राजस्थान के बीकानेर में देखने में आती है। यहां फाल्गुन मास की सप्तमी तिथि से ही होली शुरू हो जाती है, जो धूलैंडी तक रहती है। यह होली भी अंदर मस्ती, उल्लास के साथ-साथ विशेष अंदाज समेटे हुए है। इस होली का प्रारम्भ भी होलाष्टक में गढ़ने वाले डंडे के समान ही चौक में खम्भ पूजने के साथ होता है। होलाष्टक की पौराणिक मान्यता फाल्गुन शुक्ल अष्टमी से लेकर होलिका दहन अर्थात पूर्णिमा तक होलाष्टक रहता है। इस दिन से मौसम की छटा में बदलाव आना आरम्भ हो जाता है। सर्दियां अलविदा कहने लगती हैं, और गर्मियों का आगमन होने लगता है। साथ ही वसंत के आगमन की खुशबू फूलों की महक के साथ प्रकृति में बिखरने लगती है। 
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होलिका दहन क्यों और कैसे 
होलिका में गाय के गोबर से बने उपले की माला बनाई जाती है। उस माला में छोटे-छोटे सात उपले होते हैं। रात को होलिका दहन के समय यह माला होलिका के साथ जला दी जाती है। इसका उद्देश्य यह होता है कि होली के साथ घर में रहने वाली बुरी नज़र भी जल जाती है और घर में सुख-समृद्धि आने लगती है। लकड़ियों और उपलों से बनी इस होलिका की मध्याह्न से ही विधिवत पूजा प्रारम्भ होने लगती है। यही नहीं घरों में जो भी पकवान बनता है होलिका में उसका भोग लगाया जाता है। शाम तक शुभ मुहूर्त पर होलिका का दहन किया जाता है। इस होलिका में नई फसल की गेहूं की बालियों और चने के झंगरी को भी भूना तथा उसको खाया भी जाता है। होलिका का दहन समाज में व्याप्त बुराइयों पर अच्छाइयों की विजय का प्रतीक है। यह दिन होली का प्रथम दिन भी कहलाता है।


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