Hari singh nalwa birth anniversary: बच्चे रोते थे तो मां कहती थी, चुप हो जा वरना ‘नलवा’ आ जाएगा
punjabkesari.in Friday, Apr 28, 2023 - 08:41 AM (IST)

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Hari singh nalwa birth anniversary: रणजीत सिंह का सेनाध्यक्ष एक ऐसा योद्धा था, जिसके नाम से ही अफगान खौफ खाते थे, जिनको उसने नाकों चने चबवा दिए थे। बच्चे रोते थे तो मां कहती थी, चुप हो जा वरना ‘नलवा’ आ जाएगा। जिसने पठानों के विरुद्ध कई युद्धों का नेतृत्व किया, इस महान योद्धा का नाम हरि सिंह नलवा था। रणनीति व रणकौशल की दृष्टि से हरि सिंह नलवा की तुलना भारत के श्रेष्ठ सेनानायकों से की जाती है।
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हरि सिंह नलवा का जन्म 28 अप्रैल, 1791 को पंजाब के गुजरांवाला में हुआ था। इनके पिता का नाम गुरदयाल सिंह उप्प्पल और मां का नाम धर्म कौर था। बचपन में उन्हें घर के लोग प्यार से ‘हरिया’ कहते थे। सात वर्ष की आयु में इनके पिता का देहान्त हो गया। 14 वर्ष की आयु में 1805 में महाराजा रणजीत सिंह द्वारा वसन्तोत्सव पर करवाई गई प्रतिभा खोज प्रतियोगिता में हरि सिंह नलवा ने भाला चलाने, तीरंदाजी तथा अन्य प्रतियोगिताओं में अपनी अद्भुत प्रतिभा का परिचय दिया, जिससे प्रभावित होकर महाराजा रणजीत सिंह ने उन्हें अपनी सेना में भर्ती कर लिया। शीघ्र ही वह उनके विश्वासपात्र सेनानायकों में से एक बन गए।
महाराजा रणजीत सिंह एक बार अपने कुछ सैनिकों और हरि सिंह नलवा के साथ जंगल में शिकार खेलने गए। वहां एक विशाल आकार के बाघ ने उन पर हमला कर दिया।
सभी सैनिक डर से सहम गए तो उस बाघ से सभी को बचाने के लिए हरि सिंह आगे आए, जिन्होंने खतरनाक बाघ के जबड़ों को अपने दोनों हाथों से पकड़ कर उसके मुंह को बीच में से चीर डाला। उनकी इस बहादुरी को देख कर रणजीत सिंह ने कहा ‘तुम तो राजा नल जैसे वीर हो’, तभी से वह ‘नलवा’ के नाम से प्रसिद्ध हो गए।
महाराजा रणजीत सिंह के शासनकाल में 1807 से लेकर 1837 तक हरि सिंह नलवा लगातार तीन दशक तक अफगानों से लोहा लेते रहे और कसूर, मुल्तान, कश्मीर तथा पेशावर में सिख शासन स्थापित किया। हरि सिंह नलवा ने अनेक प्रदेशों को जीतकर महाराजा रणजीत सिंह के अधीन ला दिया। उन्होंने 1813 में अटक, 1818 में मुल्तान, 1819 में कश्मीर तथा 1823 में पेशावर की जीत में विशेष योगदान दिया। इन्होंने अपने अभियानों द्वारा सिन्धु नदी के पार अफगान साम्राज्य के एक बड़े भाग पर अधिकार करके सिख साम्राज्य का उत्तर-पश्चिम में विस्तार किया।
नलवे की सेनाओं ने अफगानों को खैबर दर्रे के उस ओर खदेड़ कर इतिहास की धारा ही बदल दी। खैबर दर्रा पश्चिम से भारत में प्रवेश करने का एक महत्वपूर्ण मार्ग है। इसी दर्रे से होकर यूनानी, हूण, शक, अरब, तुर्क, पठान और मुगल लगभग एक हजार वर्ष तक भारत पर आक्रमण करते रहे। हरि सिंह नलवा ने खैबर दर्रे का मार्ग बंद करके इस ऐतिहासिक अपमानजनक प्रक्रिया का पूर्ण रूप से अन्त कर दिया। इन्हें कश्मीर और पेशावर का गवर्नर बनाया गया। कश्मीर में उन्होंने एक नया सिक्का ढाला जो ‘हरि सिंगी’ के नाम से जाना गया। यह सिक्का आज भी संग्रहालयों में प्रदर्शित है। ब्रिटिश शासकों ने हरि सिंह नलवा की तुलना नेपोलियन से भी की है। इन्हें ‘शेर-ए-पंजाब’ भी कहा जाता है।
मुल्तान विजय में हरि सिंह नलवा की प्रमुख भूमिका रही। महाराजा रणजीत सिंह के आह्वान पर वह आत्मबलिदानी दस्ते में सबसे आगे रहे। इस संघर्ष में उनके कई साथी घायल हुए परन्तु मुल्तान का दुर्ग महाराजा रणजीत सिंह के हाथों में आ गया। महाराजा रणजीत सिंह को पेशावर जीतने के लिए कई प्रयत्न करने पड़े। पेशावर पर अफगानिस्तान के शासक के भाई सुल्तान मोहम्मद का राज था। यहां युद्ध में हरि सिंह नलवा ने सेना का नेतृत्व किया, जिनसे यहां का शासक इतना भयभीत हुआ कि वह पेशावर छोड़कर भाग गया। अगले 10 वर्षों तक हरि सिंह के नेतृत्व में पेशावर पर महाराजा रणजीत सिंह का आधिपत्य बना रहा, पर यदा-कदा टकराव भी होते रहे। इस पर पूर्णत: विजय 6 मई, 1834 को स्थापित हुई।
1837 में जब राजा रणजीत सिंह अपने बेटे की शादी में व्यस्त थे, तब हरि सिंह नलवा उत्तर-पश्चिमी सीमा की रक्षा कर रहे थे। उसी समय पूरी अफगान सेना ने जमरूद पर हमला किया तो नलवा ने राजा रणजीत सिंह से जमरूद के किले की ओर सेना भेजने की मांग की लेकिन एक महीने तक मदद के लिए कोई सेना नहीं पहुंची।
हरि सिंह अपने मुठ्ठी भर सैनिकों के साथ वीरतापूर्वक लड़े लेकिन अचानक हुए इस प्राणघातक हमले में घायल होने पर नलवा ने अपने प्रतिनिधि महान सिंह को आदेश दिया कि जब तक सहायता के लिए नई सेना का आगमन न हो जाए उनकी मृत्यु की घोषणा न की जाए, ताकि सैनिक हतोत्साहित न हों और वीरता से डटे रहें।
हरि सिंह नलवा की उपस्थिति के डर से अफगान सेना दस दिनों तक पीछे हटी रही। घायल होने के बावजूद भी हरि सिंह नलवा लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। एक प्रतिष्ठित योद्धा के रूप में नलवा अपने पठान दुश्मनों के सम्मान के भी अधिकारी बने। 1892 में पेशावर के एक हिन्दू बाबू गज्जू मल्ल कपूर ने उनकी स्मृति में किले में एक स्मारक बनवाया। भारत सरकार ने 2013 में इनके सम्मान में डाक टिकट भी जारी किया था।