Guru Gobind Singh Jayanti 2020: बादशाह दरवेश गुरु गोबिंद सिंह जी के जन्मदिन पर कुछ खास बातें

punjabkesari.in Thursday, Jan 02, 2020 - 07:12 AM (IST)

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सिखों के 10वें गुरु श्री गुरु गोबिंद सिंह जी का प्रकाश संवत 1723 (दिसम्बर 1666 ई.) को श्री गुरु तेग बहादुर जी के घर माता गुजरी जी की कोख से पटना साहिब (बिहार) में हुआ था। आप का बचपन का नाम गोबिंद राय था। धर्म प्रचार का दौरा समाप्त होने पर जब गुरु तेग बहादुर जी पंजाब आए तो आपने अपने परिवार को भी पटना से अपने पास आनंदपुर साहिब बुला लिया। यहां गोबिंद राय जी ने धार्मिक विद्या ग्रहण की तथा शस्त्रबाजी में भी निपुणता हासिल की। कश्मीर के उस समय के गवर्नर इफ्तखार खान ने औरंगजेब के इशारे पर कश्मीर के ब्राह्मणों पर बहुत अत्याचार किए। हिन्दुओं को जबरदस्ती मुस्लिम धर्म ग्रहण करने के लिए विवश किया जा रहा था। जुल्मों से तंग आकर कश्मीरी ब्राह्मणों का एक दल मटन के निवासी पंडित कृपाराम दत्त की अध्यक्षता में गुरु तेग बहादुर जी की शरण में आनंदपुर साहिब में 25 मई 1675 ई. को आया तथा अपने धर्म की रक्षा के लिए पुकार की।

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गोबिंद राय जी ने अपने पिता को हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए स्वयं दिल्ली की तरफ रवाना किया। गुरु तेग बहादुर जी गुरुगद्दी श्री गोबिंद राय जी को सौंप गए। 

एक वैशाख संवत 1756 (अप्रैल 1699 ई.) को गुरु जी ने खालसा पंथ की सृजना की तथा पांच प्यारे सजाए। इन पांच प्यारों का जन्म तलवार की धार पर हुआ। गुरु जी ने बाद में पांच प्यारों को गुरु के तुल्य सम्मान देते हुए उनसे खुद अमृत छका तथा आप ही गुरु व आप ही चेला का संकल्प दिया। आप जी का नाम गोबिंद राय से गुरु गोबिंद सिंह जी हो गया।

हालांकि गुरु जी को बहुत ज्यादा समय युद्धों में रहना पड़ा, इसके बावजूद आप जी ने बहुत बाणी की रचना की, जिनमें जाप साहिब, सवैये, बचित्तर नाटक, वार श्री भगौती जी की (चंडी दी वार), अकाल उसतति, जफरनामा के नाम वर्णनीय हैं। इसलिए आप जी को कलम तथा तलवार के धनी भी कहा जाता है।

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आनंदपुर साहिब तथा पाऊंटा साहिब में रहते हुए गुरु जी ने पुरातन धार्मिक ग्रंथों का अनुवाद भी करवाया। आप जी की हजूरी में 52 कवि हमेशा रहा करते थे, जिन्होंने काफी साहित्य की रचना की। मुगलों तथा 22 धार के राजाओं द्वारा अपने-अपने धार्मिक ग्रंथों की शपथ लेने पर 6 पौष संवत 1761 मुताबिक 20 दिसम्बर 1704 ई.(प्रिं. तेजा सिंह, डा. गंडा सिंह अनुसार 1705 ई.) को गुरु जी ने आनंदपुर साहिब को छोड़ दिया। कुछ ही समय के पश्चात दुश्मन अपनी शपथों को भूल गया तथा गुरु जी पर हमला कर दिया। सरसा नदी पर घोर युद्ध हुआ जिसमें गुरु जी का परिवार बिखर गया। गुरु जी को चमकौर साहिब में मुगलों से युद्ध लड़ना पड़ा, जिसमें आप जी के दो बड़े साहिबजादे, तीन प्यारे तथा कई सिंह शहीद हो गए। आप जी के दो छोटे साहिबजादों को सरहिन्द के सूबेदार वजीर खान द्वारा दीवारों में चिनवा कर शहीद कर दिया गया। माता गुजरी जी का देहांत भी सरहिन्द में ही हुआ।

चमकौर साहिब से आप जी पांचों प्यारों का हुक्म मानकर माछीवाड़े के जंगलों में जा पहुंचे, जहां आप जी ने पंजाबी में शब्द उचारा:-
‘मित्र प्यारे नूं हाल मुरीदां दा कहणा॥
तुधु बिनु रोगु रजाइयां दा ओढण नाग निवासां दे रहणा।।
सूल सुराही खंजर प्याला बिंगु कमाइयां दा सहणा॥
यारड़े दा सानू सत्थर चंगा भट्ठ खेडिय़ां दा रहणा।।’

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इसके बाद आप जी को माछीवाड़ा के दो पठान भाइयों नबी खां, गनी खां ने उगा के पीर के रूप में आगे के लिए रवाना किया। जब आप खिदराने की ढाब (मुक्तसर साहिब) के निकट पहुंचे तो मुगल सेना ने दोबारा आप जी पर हमला कर दिया। यहां माई भागो व भाई महां सिंह जी के नेतृत्व में गुरु जी का किसी समय साथ छोड़ चुके सिंहों ने मुगलों से लड़ाई की। यहां भी जीत गुरु जी की हुई। गुरु साहिब ने मुक्तसर की लड़ाई के बाद तलवंडी साबो (बठिंडा) में आकर कुछ समय तक आराम किया तथा यहां गुरु ग्रंथ साहिब जी की पवित्र बीड़ दोबारा लिखवाई, जिसमें गुरु तेग बहादुर जी की बानी भी शामिल की गई। इससे पहले गुरु जी ने औरंगजेब को जफरनामा भी लिखा, जिसका मतलब है ‘विजय पत्र’।

इतिहास बताता है कि औरंगजेब जफरनामे को पढ़कर इतना भयभीत हुआ कि उसके पाप उसको डराने लगे तथा अंत में उसकी मौत हो गई। बाद में आप दक्षिण की ओर चले गए तथा महाराष्ट्र के शहर नांदेड़ में रह रहे माधो दास बैरागी को अमृत छका कर बाबा बंदा सिंह बहादुर बनाया जिन्होंने सरहिन्द की ईंट से ईंट बजाते हुए गुरु साहिब जी के छोटे साहिबजादों की शहीदी का बदला लिया। नांदेड़ में ही आप जी ने गुरुगद्दी श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी को दे दी तथा 7 अक्तूबर 1708 ई. को ज्योति जोत समा गए। गुरु जी की सारी लड़ाई मानवता की रक्षा के लिए थी।    


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Niyati Bhandari

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