Kundli Tv- गोवत्स द्वादशी 2018: जानें, व्रत की पौराणिक कथा

punjabkesari.in Saturday, Nov 03, 2018 - 05:39 PM (IST)

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गोवत्स द्वादशी का व्रत कार्तिक महीने की कृष्ण पक्ष की द्वादशी को होता है। ऐसी मान्यता है कि इस दिन पहली बार श्री कृष्ण वन में गऊएं-बछड़े चराने गए थे। माता यशोदा ने श्री कृष्ण का शृंगार करके गोचारण के लिए तैयार किया था। पूजा-पाठ के बाद गोपाल ने बछड़े खोल दिए। यशोदा ने बलराम जी से कहा कि बछड़ों को चराने दूर मत जाना और कान्हा को अकेला मत छोडऩा, देखना यमुना के किनारे अकेला न जाए। गोपालों द्वारा गोवत्संचारण की पुण्यतिथि को इसीलिए पर्व के रूप में मनाया जाता है। यह पर्व पुत्र की मंगल-कामना के लिए किया जाता है। इसे पुत्रवती स्त्रियां करती हैं। इस पर्व पर गीली मिट्टी की गाय, बछड़ा, बाघ तथा बाघिन की मूर्तियां बनाकर पाट पर रखी जाती हैं तब उनकी विधिवत पूजा की जाती है।
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गौ पृथ्वी का प्रतीक मानी जाती है तथा इन्हीं में तैंतीस कोटी देवी-देवता वास करते हैं।शास्त्रनुसार इस दिन गाय व बछड़े के पूजन का विधान है इसलिए इस रोज गाय के दूध की जगह भैंस या बकरी का दूध पिया जाता है।

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गोवत्स द्वादशी की व्रत कथा
प्राचीन समय में भारत में सुवर्णपुर नामक एक नगर था। वहां देवदानी नाम का राजा राज्य करता था। उसके पास एक गाय और एक भैंस थी। उनकी दो रानियां थीं, एक का नाम सीता और दूसरी का नाम गीता था। सीता को भैंस से बड़ा ही लगाव था। वे उसे बहुत प्यार करती थी तो वहीं दूसरी रानी गीता गाय से सखी-सहेली के समान और बछड़े से पुत्र समान प्यार और व्यवहार करती थी। ये देखकर भैंस ने एक दिन रानी सीता से कहा कि गीता गाय और बछड़ा से बहुत प्यार करती है और मुझसे नफरत करती हैं। 

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तब सीता ने कहा कि अगर ऐसी बात है तो मैं सब ठीक कर दूंगी और सीता ने इसके लिए एक चालाकी की और गाय के बछड़े को काटकर गेहूं के ढेर में छिपा दिया और इस बात का पता किसी को नहीं लगा लेकिन एक दिन राजा भोजन करने बैठा तो मांस और खून की बारिश होने लगी और महल के चारों ओर सिर्फ खून और मांस ही दिखाई दे रहा था। जिससे सब हैरानी में पड़ गए तभी एक आकाशवाणी हुई। जिसके बाद राजा को सब कुछ समझ आ गया। उस आकाशवाणी में कहा गया कि अगर राजा भैंस को बाहर निकाल देगा और गाय और बछड़े की पूजा करना शुरू कर देगा तो सब ठीक हो जाएगा। तभी से गोवत्स द्वादशी मनाई जाने लगी। 
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Niyati Bhandari

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