लाइफ की हर Confusion होगी उड़न छू

punjabkesari.in Friday, May 04, 2018 - 06:19 PM (IST)

भगवान श्री गीता जी में कहते हैं कि मर्म को न जानकर किए अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है। किसी विषयवस्तु का समुचित ज्ञान होना और उस ज्ञान को व्यवहार में न लाना सबसे बड़ी अज्ञानता है। हम तब तक किसी विषय को समझने का प्रयास नहीं करते, जब तक हमें उस विषय में रुचि नहीं होती। अर्जुन अकर्मण्य रह कर युद्ध से बचने का प्रयास कर रहे थे।


कर्तव्य-अकर्तव्य का निर्णय करने में बुद्धिमान पुरुष भी मोहित हो जाते हैं। अर्जुन केवल एक ही पक्ष का विचार कर रहे थे जिसे वह धर्म समझ रहे थे। वह वास्तव में अधर्म था क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है। अर्जुन को समझाते हुए तब श्री भगवान कहते हैं : ‘‘कर्मणोह्यपि बौद्धव्यं बौद्धव्यं च विकर्मण:। अकर्मणश्च बौद्धव्यं गहना कर्णणो गति:॥’’


कर्म का स्वरूप भी जानना चाहिए और अकर्म का स्वरूप भी जानना चाहिए तथा विकर्म का स्वरूप भी जानना चाहिए क्योंकि कर्म की गति गहन है। भीष्म पितामह ने जिस हस्तिनापुर राज सिंहासन की रक्षा के लिए जीवन पर्यन्त कर्तव्य रूपी धर्म का पालन करने का संकल्प लिया था, वह महासती द्रौपदी के वस्त्र हरण के समय उनके द्वारा विरोध न किए जाने से अधर्म में परिवर्तित हो गया।


धर्म का मूल भाव कर्तव्य पालन से अवश्य है लेकिन ऐसा कर्तव्य पालन, जिससे अधर्म का पोषण हो, वह धर्म नहीं हो सकता। धर्म अधिकारों और कर्तव्य में समन्वय स्थापित करता है।


भगवान श्रीकृष्ण ने भगवद्गीता के माध्यम से समाज में स्वस्थ लोकतंत्र की स्थापना की घोषणा की। उनके द्वारा कहे हुए ये वचन ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते’, इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि कर्म करने का अधिकार स्वयं ईश्वर द्वारा जीव को प्रदान किया गया है लेकिन जब जीव फल पर भी अपना अधिकार समझने लगता है तो वह अधिकार और कर्तव्य के समन्वय को बिगाड़ देता है। सभी लक्ष्य प्राप्ति को लेकर कर्म करते हैं परन्तु सभी को फल प्राप्त हो जाए, ऐसा संभव नहीं है। सकाम कर्म करने वाले मनुष्यों की बुद्धि अनंत भेदों वाली होती है। इसलिए उनमें निश्चयात्मक बुद्धि का अभाव होता है। 


निश्चयात्मक बुद्धि के अभाव में मनुष्य की बुद्धि भी स्थिर नहीं रहती। निश्चयात्मक बुद्धि के अभाव में मनुष्य के अंत:करण में भावना का भी अभाव होता है। चूंकि शांति का स्रोत भावना होती है इसलिए दोनों के अभाव में मनुष्य सुख से वंचित रह जाता है। जब जीव के मन में असंख्य इच्छाओं का संग्रह होता रहता है तब वह मिथ्या ज्ञान का अवलम्बन करके कभी न पूर्ण होने वाली कामनाओं का आश्रय लेकर मिथ्या सिद्धांतों को ग्रहण करके भ्रष्ट आचरण करता है।


लेकिन जो मनुष्य कर्तापन के अभिमान से रहित है, जिसमें आसक्ति, स्वार्थ और अहंकार का अभाव है, धैर्य और उत्साह से युक्त कार्य के सिद्ध होने न होने में हर्ष-शोकादि विकारों से रहित होता है, वह कर्ता सात्विक माना गया है। गृहस्थ में रहते हुए भगवद् अर्पण बुद्धि से कर्म करने वालों में राजा जनक, इसके सर्वोत्तम उदाहरण हैं।


भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं : ‘‘बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणा: फल हेतव:॥’’


हे अर्जुन- तू बुद्धियोग अर्थात समत्वरूप बुद्धियोग का आश्रय ग्रहण कर क्योंकि फल के हेतु बनने वाले बड़े दीन होते हैं। यह समत्वरूप योग ही कर्मों में कुशल है अर्थात कर्मबंधन से छूटने का उपाय है। मनुष्य न तो कर्मों का आरम्भ किए बिना कर्म योग रूपी निष्ठा को प्राप्त होता और न ही कर्मों को त्यागने से ज्ञान योग रूपी निष्ठा को प्राप्त होता है। नि:संदेह कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किए नहीं रहता। कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है। भगवान कहते हैं-

‘‘तस्मादसक्त: सततं कार्यं कर्म समाचर। असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्रोति पुरुष:॥’’

इसलिए तू निरंतर आसक्ति से रहित होकर सदा कर्तव्य कर्म को भली-भांति करता रह क्योंकि आसक्ति से रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।


सबसे ज्यादा पढ़े गए

Niyati Bhandari

Recommended News

Related News