वासना त्याग की विधि से बदलें अपना जीवन, पाएं सबसे बड़ी ताकत

punjabkesari.in Monday, May 22, 2017 - 09:14 AM (IST)

परम आचार्य शंकर ने विवेक-चूड़ामणि में अगरु एवं चंदन की लकड़ी का उदाहरण देकर वासना के दुष्प्रभाव तथा संघर्षण के द्वारा वासना त्याग की विधि को भली-भांति समझाया है। जल में पड़े रहने के कारण अगरु या चंदन की दिव्य सुगंध के ऊपर दुर्गन्ध का लेप चढ़ जाता है। जब उसे घिसा जाता है तब वह दुर्गंध दूर होती है और मूल रूप से विद्यमान दिव्य सुगंध प्रकट हो जाती है। इसी प्रकार परमात्मा की दिव्य सुगंध मनोकल्पित अपार भीषण वासनाओं की धूल से ढंक गई है। जब ज्ञान के सतत संघर्षण से हमारा अंत:करण शुद्ध होता है तब चंदन की सुगंध की भांति दिव्य सुगंध प्रकट हो जाती है।


वासनाओं के कारण मनुष्य का व्यक्तित्व सडऩे लगता है और काम-क्रोध, लोभ-मोह आदि की दुर्गंध से भर जाता है। विषयासक्ति की दुर्गंध हमारे व्यक्तित्व को इस तरह ढांप  लेती है कि हमारे मूल स्वरूप की दिव्य सुगंध पूरी तरह दब जाती है।


चंदन या अगरु की लकड़ी यदि लम्बे समय तक पानी में पड़ी रह जाए तो वह सडऩे लगती है। उससे बड़ी असह्य दुर्गंध निकलने लगती है। सामान्यत: इसकी सुगंध दिव्य होती है, किंतु पानी के दीर्घकालीन संसर्ग के कारण उसमें से दुर्गंध आने लगती है। यदि चंदन की लकड़ी को पानी से निकालकर, पत्थर से घिसा जाए तो संघर्षण के परिणामस्वरूप चंदन की मूल सुगंध बाहर फैलकर सबको प्रसन्न करने लगती है।
आचार्य शंकर कहते हैं कि यद्यपि तुम आत्मतत्व हो पर शरीर के साथ तादात्म्य रखने के कारण इस समय तुम्हारे व्यक्तित्व से वासनाओं की दुर्गंध बाहर आ रही है। काम, क्रोध, लोभ इत्यादि के कारण हमारे व्यक्तित्व से दुर्गंध निकलती रहती है। इस कारण प्रेम, दया और करुणा के निवास के लिए हृदय में कोई जगह ही नहीं रह गई है। अब इसे यदि अपनी मूल स्थिति में वापस लाना है तो व्यक्तित्व को संघर्षण प्रक्रिया के द्वारा परिष्कृत करना  पड़ेगा। इसे ध्यान साधना में प्रज्ञान से अर्थात ‘‘मैं ब्रह्म हूं’’ इस उच्च ज्ञान से बार-बार घिसना चाहिए। सतत साधना से अज्ञान जन्य वासनाओं के बादल छंटते हैं और सतस्वरूप के सूर्य का प्रकाश फैल जाता है।


यहां समझने की बात यह है कि संघर्षण के द्वारा चंदन की लकड़ी में सुगंध भरी नहीं जाती बल्कि दुर्गंध फैलाने वाली परत हटाई जाती है। चंदन में सुगंध तो पहले से ही है, उसका मूल स्वरूप है, केवल घिसने के द्वारा दुर्गंध उत्पन्न करने वाला कारण समाप्त किया जा रहा है। इसी प्रकार साधना या उपासना के द्वारा दिव्यता अर्थात ईश्वरीय तत्व कहीं बाहर से लाकर हमको दिया नहीं जा रहा है बल्कि उसको ढांपने वाली वासनाएं दूर की जाती हैं। उपनिषदों का तो उद्घोष है- ‘तत्वमसि’ अर्थात ‘वह तुम हो।’


आत्मतत्व की वास्तविक दिव्य सुगंध को हमारी अनात्म वासनाओं के जाल ने ढांप कर रखा है। यह उस धूल भरे जाले के समान है जो खिड़की के बाहर फैले सौंदर्य को धुंधला कर देता है। सांसारिक कामनाएं अर्थात देह-मन-बुद्धि, विषय-भाव-विचार जगत से आसक्ति तथा अहं केन्द्रित प्रवृत्तियां हमारे दिव्य स्वरूप को ढांप देती हैं।


आत्मतत्व का सतत् ध्यान करते रहने से वासनाओं का जाला हटाया जा सकता है। श्रुतियों का अध्ययन और मनन, ध्यान, ईश्वर के प्रति सच्ची भक्ति, निष्काम सेवा, समर्पित कर्म- ये सब मिलकर हमारे जीवन को धर्म और अध्यात्म की सुगंध से भर देते हैं। जब वासनाएं पूर्णत: क्षय हो जाती हैं तब आत्मतत्व स्वत: प्रकट हो जाता है। वह तो स्वयं अपनी प्रभा से दैदीप्यमान है।


जब मन प्रत्येक आत्मा में प्रतिष्ठित होने लगता है तब सांसारिक वासनाओं की चाह कम होने लगती है। जब मन पूर्णरूपेण प्रत्येक आत्मा में सम्यक रूप से प्रतिष्ठित हो जाता है तब समस्त वासनाएं निराकृत हो जाती हैं। वासना शून्यता ही ध्यान की पूर्णावस्था है। इसी को आत्म साक्षात्कार कहते हैं।


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