जब ‘भक्त श्री सूरदास’ को श्री कृष्ण ने दिए दर्शन तो सूरदास जी से मांगा ये वर...
punjabkesari.in Thursday, Jul 15, 2021 - 02:53 PM (IST)

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भारतीय धार्मिक साहित्य के अमर ग्रंथ ‘सूरसागर’ के रचयिता भक्त सूरदास जी का जन्म दिल्ली के सन्निकट सीही ग्राम में विक्रम संवत 1535 की वैशाख शुक्ल पंचमी को हुआ था। इनकी प्रतिभा अत्यंत प्रखर थी। बचपन से ही ये काव्य और संगीत में अत्यंत निपुण थे। चौरासी वैष्णवों की वार्ता के अनुसार ये सारस्वत ब्राह्मण थे। इनके पिता का नाम रामदास था। पुष्टि सम्प्रदायाचार्य महाप्रभु वल्लभाचार्य विक्रम संवत 1530 में अपनी ब्रज यात्रा के समय मथुरा में निवास कर रहे थे। वहीं सूरदास जी ने उनसे दीक्षा प्राप्त की। आचार्य वल्लभाचार्य के इष्टदेव श्रीनाथ जी के प्रति इनकी अपूर्व श्रद्धा भक्ति थी। आचार्य जी की कृपा से ये श्रीनाथ जी के प्रधान कीर्तनकार नियुक्त हुए। प्रतिदिन श्रीनाथ जी के दर्शन करके उन्हें नए-नए पद सुनाने में इन्हें बड़ा सुख मिलता था।
श्री राधाकृष्ण के अनन्य अनुरागी भक्त सूरदास जी बड़े ही प्रेमी और त्यागी भक्त थे। इनकी मानस पूजा सिद्ध थी। श्री कृष्ण लीलाओं का सुंदर और सरस वर्णन करने में ये अद्वितीय थे। गुरु की आज्ञा से इन्होंने श्रीमद्भागवत की कथा की पदों में रचना की। इनके द्वारा रचित ‘सूरसागर’ में श्रीमद् भागवत के दशम स्कंध की कथा का अत्यंत सरस तथा मार्मिक चित्रण है। उसमें सवा लाख पद बताए जाते हैं, यद्यपि इस समय उतने पद नहीं मिलते हैं। एक बार भक्त श्री सूरदास जी एक कुएं में गिर गए और छ: दिनों तक उसी में पड़े रहे। सातवें दिन भगवान श्री कृष्ण ने प्रकट होकर इन्हें दृष्टि प्रदान की। इन्होंने भगवान श्री कृष्ण के रूप-माधुर्य का छक कर पान किया। इन्होंने भगवान श्री कृष्ण से यह वर मांगा कि ‘‘मैंने जिन नेत्रों से आपका दर्शन किया, उनसे संसार के किसी अन्य व्यक्ति और वस्तु का दर्शन न करूं।’’
इसलिए ये कुएं से निकलने के बाद पहले की तरह नेत्र ज्योति विहीन हो गए। कहते हैं कि इनके साथ बराबर एक लेखक रहा करता था। इनके मुंह से जो भजन निकलते, उन्हें वह लिखता जाता था। कई अवसरों पर लेखक के अभाव में भगवान श्रीकृष्ण स्वयं इनके लेखक का काम करते थे। संगीत सम्राट तानसेन एक बार बादशाह अकबर के सामने भक्त सूरदास जी रचित एक अत्यंत सरस और भक्तिपूर्ण पद गा रहे थे। बादशाह पद की सरसता पर मुग्ध हो गए और उन्होंने सूरदास जी से स्वयं मिलने की इच्छा प्रकट की। वह तानसेन के साथ सूरदास जी से मिलने गए। उनके अनुनय विनय से प्रसन्न होकर सूरदास जी ने एक पद गाया, जिसका अभिप्राय था ‘‘हे मन! तुम मानव से प्रीति करो। संसार की नश्वरता में क्या रखा है।’’ बादशाह उनकी अनुपम भक्ति से अत्यंत प्रभावित हुए। भक्त श्री सूरदास जी की उपासना सख्य भाव की थी। यहां तक कि इन्हें उद्धव का अवतार भी कहा जाता है। विक्रम संवत 1620 के लगभग गोसाईं वि_ल नाथ जी के सामने परसोली ग्राम में ये श्री राधाकृष्ण की अखंड रास में सदा के लिए लीन हो गए। इनके पद बड़े ही अनूठे हैं। इन्हें पढऩे से आत्मा को वास्तविक सुख शांति और तृप्ति मिलती है। शृंगार और वात्सल्य का जैसा वर्णन भक्त श्री सूरदास जी की रचनाओं में मिलता है वैसा अन्यत्र दुर्लभ है।