कर्मों का त्याग करने से नहीं होता परमात्मा से मिलन जानें, क्यों ?

punjabkesari.in Sunday, Jan 12, 2025 - 08:25 AM (IST)

शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ

न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यम पुरुषो-अश्नुते| ना च सन्न्यासनादेवा सिद्धिम समाधिगच्छति|| भगवद गीता, अध्याय ३, श्लोक ४||

भगवान कृष्ण कहते हैं कि कर्म के चक्र में प्रवेश किये बिना कोई भी जीव कर्मों से मुक्त नहीं होता, न ही कर्मों का त्याग करने से उसे परमआनंद प्राप्त होता है और न ही उसका परमात्मा से मिलन हो पाता है। अधिकांश लोग अध्यात्म का संबंध पलायनवाद से जोड़ते हैं किंतु यह सत्य नहीं है। गीता के अनुसार कर्म प्रधान है। तीनों गुणों से युक्त हमारा शरीर कर्म करने हेतु ही रूपांकित किया गया है, यह क्षणभर भी निष्क्रिय नहीं रह सकता। श्री कृष्ण और श्री राम ने स्वयं भगवान होते हुए भी, मनुष्य का शरीर धारण करने के उपरांत कर्म किए। 

हम हमारे कर्मों से पीछा छुड़ा सकते हैं, ऐसा सोचना भी मूर्खता है। जो इंसान बाहर से इंद्रियों और कर्मों पर नियंत्रण करने का दिखावा करता है परंतु अंतर मन में इंद्रियों और कर्मों के ही विषयों पर विचार करता है, उसे गीता में मिथ्याचारी कहा गया है क्योंकि कर्म केवल वही नहीं होता जो इंद्रियों से भौतिक रूप से किया जाता है बल्कि वह भी होता है जो मन में सोचा जाता है। 

इच्छाओं का दमन या उनसे भागना उपाय नहीं है बल्कि स्वयं को इस प्रकार ऊपर उठाना जिस से इच्छाओं का आप पर प्रभाव ही न हो, आपकी इच्छाएं आपके नियंत्रण में हो, यही योग है। इस स्थिति को प्राप्त करने के लिए मनुष्य का इंद्रियों और कर्मों में संलग्न होना अनिवार्य है, स्वार्थ के लिए नहीं अपितु सृष्टि के कल्याण हेतु। जो इंसान अनासक्ति से सृष्टि के प्रति अपना दायित्व निभाता है, कर्मों से ऊपर उठ जाता है और अंतिम सत्य को पा लेता है। जो इंसान केवल खुद के लिए जीता है या अकर्मणयता को जीवन बना लेता है, उसका जन्म व्यर्थ हो जाता है। 

गीता कहती है कि जो कुछ भी समाज का नेतृत्व करने वाले तथा जन साधारण के आदर्श पुरुष करते हैं, जनता उसी का अनुसरण करती हैं। भगवान कृष्ण के उपदेश के अनुसार ज्ञानी इंसान को सबके हित के लिए अनासक्त होकर बिलकुल उसी प्रकार कर्म करने चाहिए जिस प्रकार एक अज्ञानी आसक्ति से स्वयं के सुख के लिए कर्म करता है। भगवान कृष्ण, भगवान राम और अब तक के सभी ऋषियों और योगियों ने भी चिरकाल से ऐसे ही अपना जीवन व्यतीत किया है। 

आज के युग में, जब नकारात्मकता अपनी चरमसीमा पर पहुंच चुकी है, जहां गायों की बेरहमी से हत्या की जाती है, श्वानों को मारा जाता है, बंदरों को मार दिया जाता है, इंसान भूख से तड़पते हैं, प्रदुषण चोटी पर पहुंच चुका है और कुछ स्वयंघोषित गुरु अपनी जेबें भरने हेतु लोगों को उनकी इच्छाएं पूरी करने के झूठे दिलासे देकर भटकाते हैं (जो कि गीता में लिखे हुए तथ्य से बिलकुल विपरीत बात है), तो ऐसे में ज्ञानियों द्वारा कर्म करने की अत्यधिक आवश्यकता है। इस दौर में सारे गुरुओं और प्रेरणास्रोतों को स्वयं के उदाहरण से समाज का नेतृत्व कर, जानवरों, इंसानों और सृष्टि को बचाने हेतु कार्य करने चाहिए। जिसके परिणामस्वरूप वे जान साधारण को भी इस मार्ग पर चलने के लिए प्रवृत्त कर सकें। गीता सभी गुरुओं और योगियों को यह उपदेश देती है कि वे लोगों को उनके इच्छित कर्म करने से न रोकें और उनके मन को जो कि फिलहाल इन्द्रियों के सुखों पर केंद्रित है विचलित न करें बल्कि लोगों को सृष्टि के हितहेतु कर्म करने का मार्ग बताएं, जिसके कारण से सभी जीव आत्मिक उन्नति द्वारा अपने दुखों और पीड़ाओं का अंत कर सकें। 

 अश्विनी गुरुजी


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Content Editor

Prachi Sharma

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