श्रीमद्भगवद्गीता: तब भगवान तथा भक्त के बीच हो जाता है अंतरंग संबंध स्थापित

punjabkesari.in Monday, Jan 16, 2017 - 03:28 PM (IST)

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप व्याख्याकार : स्वामी प्रभुपाद 

अध्याय छह ध्यानयोग

कृष्ण प्रेम का विकास


यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥ 30॥


शब्दार्थ : य:—जो; माम्—मुझको; पश्यति—देखता है; सर्वत्र—सभी जगह; सर्वम्—प्रत्येक वस्तु को; च—तथा; मयि—मुझमें; पश्यति—देखता है; तस्य—उसके लिए; अहम—मैं; न—नहीं; प्रणश्यामि—अदृश्य होता हूं; स:—वह; च—भी; मे:—मेरे लिए; न—नहीं; प्रणश्यति—अदृश्य होता है।


अनुवाद : जो मुझे सर्वत्र देखता है और सब कुछ मुझमें देखता है उसके लिए न तो मैं कभी अदृश्य होता हूं और न वह मेरे लिए अदृश्य होता है।


तात्पर्य : कृष्णचेतनामय व्यक्ति भगवान् कृष्ण को सर्वत्र देखता है और सारी वस्तुओं को कृष्ण में देखता है। ऐसा व्यक्ति भले ही प्रकृति की पृथक्-पृथक् अभिव्यक्तियों को देखता प्रतीत हो, किन्तु वह प्रत्येक दशा में इस कृष्णभावनामृत से अवगत रहता है कि प्रत्येक वस्तु कृष्ण की ही शक्ति की अभिव्यक्ति है। कृष्णभावनामृत का मूल सिद्धांत ही यह है कि कृष्ण के बिना कोई अस्तित्व नहीं है और कृष्ण ही सर्वेश्वर हैं।


कृष्णभावनामृत कृष्ण प्रेम का विकास है-ऐसी स्थिति जो भौतिक मोक्ष से भी परे है। कृष्णभावनामृत की इस अवस्था में आत्म साक्षात्कार से परे भक्त कृष्ण से इस अर्थ में एक रूप हो जाता है कि उसके लिए कृष्ण ही सब कुछ हो जाते हैं और भक्त प्रेममय कृष्ण से पूरित हो उठता है। तब भगवान् तथा भक्त के बीच अंतरंग संबंध स्थापित हो जाता है। उस अवस्था में जीव को विनष्ट नहीं किया जा सकता और न भगवान भक्त की दृष्टि से ओझल होते हैं। 

(क्रमश:)


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