वाराणसी का चमत्कारी मंदिर जहां हनुमान जी ने तुलसीदास को दिए थे दर्शन
punjabkesari.in Friday, Oct 03, 2025 - 06:01 AM (IST)

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Banaras Hanuman Temple: देश के ऐतिहासिक मंदिरों में शामिल आज हम आपको पवनपुत्र हनुमान जी के एक ऐसे ही चमत्कारिक मंदिर के दर्शन करवाने जा रहें हैं जिसका इतिहास करीब 400 साल पुराना है। आपको बता दें ये वो जगह है जहां हनुमान जी ने राम भक्त गोस्वामी तुलसीदास को दर्शन दिए थे, जिसके बाद बजरंगबली मिट्टी का स्वरूप धारण कर यहीं स्थापित हो गए। बताया जाता है कि संवत 1631 और 1680 के बीच इस मंदिर का निर्माण हुआ था। इसकी स्थापना तुलसीदास ने कराई थी। मान्यता है कि जब वे काशी में रह कर रामचरितमानस लिख रहे थे, तब उनके प्रेरणा स्त्रोत संकट मोचन हनुमान ही थे। इस मंदिर के बारें में कहा जाता है कि यहां आने वाले भक्तों के सभी कष्ट हनुमान के दर्शन मात्र से ही दूर हो जाते हैं। संकट मोचन नाम से प्रसिद्ध ये मंदिर उत्तर प्रदेश के वाराणसी काशी में स्थित है।
इस मंदिर से जुड़ी धार्मिक मान्यता के अनुसार, तुलसीदास स्नान-दान के बाद गंगा के उस पार जाते थे। वहां एक सूखा बबूल का पेड़ था। ऐसे में वे जब भी उस जगह जाते, एक लोटा पानी उस पेड़ को डाल देते थे। धीरे-धीरे वह पेड़ हरा होने लगा। एक दिन पानी डालते समय तुलसीदास को पेड़ पर किसी की परछाई दिखी। उसने तुलसीदास जी से कहा- 'क्या आप राम से मिलना चाहते हैं? मैं आपको उनसे मिला सकता हूं..' इस पर उन्होंने हैरानी से पूछा- 'तुम मुझे राम से कैसे मिला सकते हो?' उस भूत ने बताया कि इसके लिए आपको हनुमान से मिलना पड़ेगा। काशी के कर्णघंटा में राम का मंदिर है। वहां सबसे आखिरी में एक कुष्ठ रोगी बैठा होगा, वो हनुमान हैं। ये सुनकर तुलसीदास तुरंत उस मंदिर में गए। जैसे ही तुलसीदास उस कुष्ठ रोगी से मिलने के लिए उसके पास गए, वो वहां से चला गया।
तुलसीदास भी उनके पीछे-पीछे चलते रहे। आज जिस क्षेत्र को अस्सी कहा जाता है, उसे पहले आनद कानन वन कहते थे। यहां पहुंचने पर उन्होंने सोचा कि अब तो जंगल आ गया है, पता नहीं यह व्यक्ति कहां तक जाएगा। ऐसे में उन्होंने उसके पैर पकड़ लिए और कहा कि आप ही हनुमान हैं, कृप्या मुझे दर्शन दीजिए। इसके बाद बजरंग बली ने उन्हें दर्शन दिया और उनके आग्रह करने पर मिट्टी का रूप धारण कर यहीं स्थापित हो गए, जो आज संकट मोचन मंदिर के नाम से जाना जाता है।
तुलसीदास के बारे में कहा जाता है कि वे हनुमान के अभिन्न भक्त थे। एक बार तुलसीदास के बांह में पीड़ा होने लगी, तो वे उनसे शिकायत करने लगे। उन्होंने कहा कि 'आप सभी के संकट दूर करते हैं, मेरा कष्ट दूर नहीं करेंगे' इसके बाद नाराज होकर उन्होंने हनुमान बाहुक लिख डाली। बताया जाता है कि यह ग्रंथ लिखने के बाद ही उनकी पीड़ा खुद ही समाप्त हो गई।