कन्या दान के अलावा विवाह में ‘सिंदूर दान’ भी माना गया है सर्वोत्तम, जानें क्यों ?

punjabkesari.in Saturday, Aug 10, 2019 - 05:47 PM (IST)

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भगवान श्रीराम ने राजा जनक द्वारा आयोजित किए गए स्वयंवर में शिव के धनुष को तोड़कर सीता को प्राप्त किया और सीता जी ने श्रीराम जी के गले में वरमाला डालकर उन्हें पति रूप में स्वीकार किया। तदोपरांत राजा जनक ने अयोध्या के राजा दशरथ को संदेश भेजा। तब वह अयोध्या से बारात लेकर जनकपुरी गए। तब फिर दोनों पक्षों की उपस्थिति में वैदिक रीति से ब्राह्मणों द्वारा मंत्रोच्चारण के मध्य विधिपूर्वक श्रीराम ने सीता की मांग में सिंदूर भरा जिसे ‘सिंदूर दान’ कहते हैं। माना जाता है सिंदूर दान के पश्चात ही विवाह की पूर्णता होती है।
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महिलाओं में माथे पर कुमकुम (बिंदी) लगाने के अतिरिक्त मांग में सिंदूर भरने की प्रथा अति प्राचीन है। यह उनके सुहागिन होने का प्रतीक तो है ही, साथ ही इसे मंगलसूचक भी माना जाता है। सुहागिनों के ललाट पर जहां कुमकुम लगा होता है, वह ङ्क्षबदु और जहां वे मांग भरती हैं, उस स्थान को शास्त्रों में उनके सौभाग्य का लक्षण माना गया है। ज्योतिष शास्त्र में लाल रंग को काफी महत्व दिया गया है, क्योंकि यह मंगल ग्रह का प्रतीक है। सिंदूर का रंग भी लाल ही होता है। अत: इसे मंगलकारी माना जाता है। शास्त्रों में इसे लक्ष्मी का प्रतीक भी कहा गया है।
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स्त्रियों द्वारा मांग में सिंदूर भरने का प्रारंभ विवाह संस्कार के पश्चात् ही होता है। विवाह के समय प्रत्येक वर अपनी वधू की मांग में सिंदूर भरता है। विवाह के मध्य सम्पन्न होने वाला यह एक प्रमुख संस्कार है। पति की मृत्यु हो जाने पर वे मांग भरना बंद कर देती हैं। वास्तव में स्त्रियां अपनी मांग में जिस स्थान पर सिंदूर भरती हैं, स्त्री के शरीर का यह स्थान पुरुष के शरीर के इस स्थान की अपेक्षा बहुत अधिक संवेदनशील होता है, जिसकी रक्षा करना आवश्यक है। 
 

ऐसी मान्यता है कि इस स्थान पर सिंदूर भरने से उसकी रक्षा हो जाती है। अगर इसके वैज्ञानिक पक्ष को देखें तो यह स्पष्ट होता है कि सिंदूर जिन पदार्थों के मिश्रण से बनता है, उनमें अन्य चीजों के अलावा पारा जैसी धातु काफी मात्रा में होती है। सिंदूर में उपस्थित पारा इसका उपयोग करने वाली महिला के शरीर में न केवल वैद्युतिक उत्तेजना को नियंत्रित रखता है, बल्कि मर्म स्थान को बाहरी दुष्प्रभावों से भी सुरक्षित करता है।
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Jyoti

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