आज शंकराचार्य जयंती, आद्य गुरु शंकराचार्य जी के जीवन से जुड़े हैं अजब-गजब रहस्य
punjabkesari.in Friday, May 02, 2025 - 07:20 AM (IST)

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Adi Shankaracharya Jayanti 2025: वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को आद्य गुरु शंकराचार्य का जन्म हुआ। सनातन संस्कृति के उत्थान और हिंदू वैदिक सनातन धर्म के प्रचार-प्रसार का श्रेय उन्हीं को दिया जाता है। विद्वान उन्हें भगवान शिव का अवतार भी मानते हैं। भगवान शिव द्वारा कलियुग के प्रथम चरण में अपने चार शिष्यों के साथ जगदगुरु आचार्य शंकर के रूप में अवतार लेने का वर्णन पुराणशास्त्र में भी वर्णित है।
वेद-शास्त्रों के ज्ञान को जन-जन तक पहुंचाने के लिए आद्य गुरु शंकराचार्य ने देश भर की यात्रा की और जनमानस को हिंदू वैदिक सनातन धर्म तथा उसमें वर्णित संस्कारों के बारे में अवगत कराया। उनके दर्शन ने सनातन संस्कृति को एक नई पहचान दी और भारतवर्ष के कोने-कोने तक उन्होंने लोगों को वेदों के महत्वपूर्ण ज्ञान से अवगत कराया। इससे पहले यह भ्रामक प्रचार था कि वेदों का कोई प्रमाण नहीं है।
आद्य गुरु शंकराचार्य के बारे में कहा जाता है कि 8 वर्ष की आयु में उन्होंने 4 वेदों का ज्ञान, 12 वर्ष की आयु में सभी शास्त्रों का ज्ञान, तथा 16 वर्ष की आयु में उपनिषद् आदि ग्रन्थों के भाष्यों की रचना की। इन्होंने भारतवर्ष में चार कोनों में चार मठों की स्थापना की जो अभी तक प्रसिद्ध और पवित्र माने जाते हैं और जिन पर आसीन संन्यासी ‘शंकराचार्य’ कहे जाते हैं।
ये चारों स्थान हैं- ज्योतिष्पीठ बदरिकाश्रम, श्रृंगेरी पीठ, द्वारिका शारदा पीठ और पुरी गोवर्धन पीठ। आद्य गुरु शंकराचार्य ने भगवद् गीता तथा ब्रह्म सूत्र पर शंकर भाष्य के साथ ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, मांडूक्य, ऐतरेय, तैत्तिरीय, बृहदारण्यक और छान्दोग्योपनिषद् पर भाष्य लिखा।
उन्होंने अनुभव किया कि ज्ञान की अद्वैत भूमि पर जो परमात्मा निर्गुण निराकार ब्रह्म है, वही द्वैत की भूमि पर सगुण साकार है। उन्होंने निर्गुण और सगुण दोनों का समर्थन करके निर्गुण तक पहुंचने के लिए सगुण की उपासना को अपरिहार्य मार्ग माना। जहां उन्होंने अद्वैत मार्ग में निर्गुण ब्रह्म की उपासना की, वहीं उन निर्गुण ब्रह्म की सगुण साकार रूप में उन्होंने भगवान शिव, मां पार्वती, विघ्नहर्ता गणेश तथा भगवान विष्णु आदि के भक्तिरसपूर्ण स्तोत्रों की रचना कर उपासना की।
इस प्रकार उन्हें सनातन धर्म को पुन: स्थापित एवं प्रतिष्ठित करने का श्रेय दिया जाता है। उनका दृढ़ विश्वास था कि जीव की मुक्ति के लिए ज्ञान आवश्यक है।
जब बाल्यावस्था में उनकी अपने प्रथम गुरु गोविन्द भगवत्पाद जी से भेंट हुई तो गुरु ने बालक शंकर से उनका परिचय मांगा। यह परिचय ‘निर्वाण षटकम्’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। बालक शंकर बोले, ‘‘न मैं मन हूं, न बुद्धि, न अहंकार और न ही स्मृति, न मैं कान हूं, न त्वचा, न नाक और न ही आंखें, न मैं अंतरिक्ष हूं, न पृथ्वी, न अग्नि, न जल और न ही पवन। मैं चेतना और आनंद का रूप हूं, मैं अनन्त शिव हूं।’’
छोटे से बालक द्वारा अध्यात्म का इतना सुन्दर वर्णन, वास्तव में यही भारतीय वैदिक सनातन संस्कृति की महान परम्परा और प्रतिष्ठा का दर्शन कराती है। शंकराचार्य जी का जीवनकाल केवल 32 वर्ष का था। इस छोटी-सी उम्र में उनके द्वारा निर्धारित व्यवस्था आज भी संतों और हिन्दू समाज का मार्गदर्शन करती है। भारतीय संस्कृति के विकास एवं संरक्षण में इनका विशेष योगदान रहा। इन्होंने भारतीय संस्कृति तथा राष्ट्र को एक सूत्र में बांधने का सबसे महत्वपूर्ण कार्य किया।