मेक इन इंडिया के बावजूद त्रासदी झेलते लघु एवं मंझोले उद्योग

punjabkesari.in Tuesday, Nov 08, 2016 - 06:16 PM (IST)

अभी कुछ ही दिन पहले स्क्रैमजैट नामक अत्याधुनिक रॉकेट तकनीक का विकास मेक इन इंडिया के अन्तर्गत हुआ है। मोबाइल फोन्स की लगभग सभी बड़ी कम्पनियां भारत में प्लांट लगा रही हैं। रक्षा क्षेत्र की वो सभी बड़ी व नामी कम्पनियां जो भारत को पास भी नहीं फटकने देती थीं वो सभी आज भारत के साथ समझौते कर यहां अपने संयंत्र लगाने के लिए बेचैनी से आतुर हैं। लॉयड, टाटा, बजाज, भारत फोर्जिंग आदि अनेक कम्पनियां विदेशियों से समझौते कर चुकी हैं। उनके उत्पाद आने को तैयार हो रहे हैं। पहली बार बड़ी तोपों का विकास देश में होकर उनकी डिलीवरी प्रतिरक्षा सेनाओं को की जा रही है। कई मित्र पड़ोसी देशों को भारत में निर्मित आयुधों का निर्यात प्रारम्भ हो रहा है। विदेशी मुद्रा भंडार तेजी से बढ़ रहा है। इन सभी उपलब्धियों से कोई इन्कार नहीं कर सकता किन्तु आज बैंकों की स्थिति ठीक नही हैं, एन.पी.ए. बढ़ रहे हैं। इस तिमाही में जितना प्रोवीज़न होता है अगली तिमाही तक उससे ज्यादा एन.पी.ए. बढ़ जाते हैं। हजारों करोड़, लाखों करोड़ मात्र फिगर्स बन कर रह गए हैं। बैंकों की वसूली बहुत जरूरी है। नहीं हुई तो व्यवस्था चरमरा जाएगी और इसीलिए डी.आर.टी. एक्ट में संशोधन, सिक्योरिटाइज़ेशन एक्ट में संशोधन, इन्सॉल्वैंसी व बैंकरप्सी कोड जैसे कानून का बनाया जाना व बैंकों को लगभग रोज नए वसूली कानूनों के अस्त्र से सज्जित करने की प्रक्रिया को शीघ्रता से कार्यान्वित किया जा रहा है। पर इस सब के बीच सबसे आश्चर्यजनक पहलू यह है कि कहीं कोई ये विचार नहीं आ रहा कि इतने एन.पी.ए. क्यों हो रहे हैं? क्या सारे देश के व्यापारी इकट्ठे षड़यंत्र कर बैंकों के पैसे मारने की कोशिश में हैं? क्या सारे देश के व्यापारी इकट्ठा व्यापार चलाना भूल गए हैं? और अगर ऐसा नहीं हैं तो इतने बड़े स्तर पर एन.पी.ए. बढ़ क्यों हो रहे हैं?

अगर आसाम में रेल की पटरी पर एक हाथी या गैंडा कट जाता हे तो उसकी भी जांच के आदेश दिए जाते हैं। यहां लाखों छोटे व मंझोले उद्योग मर चुके हैं। उद्यमी व उनके परिवार सड़क पर तथा करोड़ों श्रमिक भूखों मर रहे हैं। 25 से 30 हजार एम.एस.एम.ई. उद्यमी आत्महत्या कर चुके हैं। स्थिति की भयावहता का अन्दाजा लगाना मुश्किल हो रहा है। किन्तु इन सब बारे में कोई सोच नहीं, कोई विचार नहीं। सम्पूर्ण सोच का एक ही उद्देश्य है "रिकवरी एैट एैनी कॉस्ट"। बिल्कुल वैसे ही जैसे कहीं सूखा पड़े तो जिले के कलैक्टर को लगान की वसूली में रियायत देने के बजाए उसे आदेश दिया जाए कि चाहे घर नीलाम करो या खेत नीलाम करो या गिरफ्तारी करो पर किसान से लगान की वसूली किसी भी कीमत पर होनी चाहिए।

यहां कोई इस बात का पक्षधर नहीं है कि सरकारी अथवा बैंकों का पैसा माफ कर दिया जाए किन्तु इतनी कष्टपूर्ण स्थिति में जब उद्योग-धन्धे पूर्ण तबाही की ओर हैं, कोई तो सहानुभूतिपूर्वक विचार होना चाहिए। करोड़ों की संख्या में चलने वाले एम.एस.एम.ई. उद्योगों की बैंकों के एन.पी.ए. में हिस्सेदारी मात्र 13-14 प्रतिशत है। क्यों नहीं बैंकों को वायेबल छोटे एवं मंझोले उद्योगों की रीस्टंक्चरिंग के लिए कहा जाता? क्यों नहीं रीस्टंक्चरिंग और ओ.टी.एस. के नियमों को आज की स्थिति के अनुसार बनाया जाता? क्यों नहीं एम.एस.एम.ई. की वर्तमान स्थिति के कारणों व उनके निराकरण के बारे में समुचित विचार करने व समयबद्ध तरीके से सुझाव देने के लिए उद्योग के प्रतिनिधित्व वाली एैम्पावर्ड कमेटी का गठन किया जाता? 

जब 2010-2011 में आर.बी.आई गवर्नर सुब्बाराओ साहब अठारह महीने में 13 बार ब्याज दरें बढ़ा सकते हैं तो क्यों अब ब्याज दरें घटाने के नाम पर आर.बी.आई. को पसीना आता है? जब कि होलसेल प्राइस इंडेक्स पिछले 2 वर्ष से लगभग नैगेटिव है। सिर्फ फूड आइटम्स के इन्फ्लेशन की वजह से ब्याज दरों का ना घटाया जाना समझ के परे है। क्या कोई व्यक्ति टमाटर, प्याज और दालें ब्याज पे पैसा लेकर खरीदता है? ब्याज दरों से आप सिर्फ इन्डस्टिंयल प्रोड्यूस का इन्फ्लेशन कंट्रोल कर सकते हैं किन्तु इन्डटिंयल प्रोड्यूस का दाम तो हर जगह घटता जा रहा है। फिर ब्याज दर कम क्यों नहीं हो रहीं?

विचारणीय प्रष्न यह भी है कि जून, 2014 में 'मेक इन इंडिया' लांच होने के 27 माह पश्चात भी इन्डस्टिंयल प्रोडक्शन इंडेक्स लगातार नैगेटिव क्यों हैं? मैनुफैक्चरिंग सैक्टर में बड़े उद्योग समूहों अथवा मल्टीनेशनल कंपनीज को छोड़कर नया निवेश क्यों नहीं आ रहा? हमारी नीतियों और ग्राउन्ड रीयलिटीज में इतना डिस्कनैक्ट क्यों है? क्या सिर्फ बैंगलूर, पुणे और गुड़गांव में आने वाले स्टार्टअप्स और ई-कॉमर्स से भला हो सकेगा? ये समझना चाहिए कि देश के औद्योगिक क्षेत्र का 97 प्रतिशत रोजगार उपलब्ध कराने वाले एम.एस.एम.ई. उद्योग ही देश के सभी क्षेत्रों के समान विकास में प्रभावशील योगदान दे सकते हैं। 

बैंकों की बैलैंसशीट नुकसान को सही रूप से परिलक्षित करें यह ठीक है परन्तु ईलाज तो यही है कि कई सालों से उद्योग धंधों को लगातार होने वाला नुकसान बन्द होने की परिस्थितियों का निर्माण किया जाए अन्यथा लगातार बढ़ते जा रहे नुकसान को आप सिर्फ उद्योगों और उद्यमियों के घर और परिसम्पत्तियां बेचकर कब तक पूरा करेंगे? 


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