क्या फांसी से दुष्कर्म रुक जाएंगे

punjabkesari.in Saturday, May 19, 2018 - 04:38 AM (IST)

क्या फांसी की सजा से दुष्कर्मों पर रोक लग सकेगी? ऐसा लगता नहीं, ऐसा संभव भी नहीं। समाज सुधारक इस प्रयास में हैं कि मनुष्य सभ्य बने। सभी कानून-कायदे से रहें और दूसरों को कायदे-कानून से रहने दें। इन प्रयासों के बाद भी अपराध होते हैं, होते रहेंगे। 

समाज सुधारक सृष्टि के आदिकाल से ही मनुष्य को सभ्य बनाने के प्रयास करते आए हैं। फिर भी आदिकाल से अपराध होते आए हैं। सभ्य बनने के प्रयास, सभ्यता को तोडऩे के प्रयास, एक प्रक्रिया के रूप में चले आ रहे हैं। मनुष्य में पशुत्व भी है, देवत्व भी है। समय, स्थान, परिस्थिति और मानव मनोविज्ञान कब गड़बड़ करवा दे, पता नहीं इसलिए जज, वकील और ज्ञानी लोग अपराधी की मनोदशा का विश्लेषण करने की वकालत करते हैं। 

मनुष्य का मन ठीक करो। मनुष्य को सभ्य बनाओ। संस्कारों को ठीक दिशा दो। ऐसा यत्न मानवतावादी करते आए हैं, पर जुर्म रुके क्या? जुर्म रोकने के लिए फांसी बनाई गई। फांसी देने के भी प्रकार बने। सिर को धड़ से अलग कर दो, पत्थरों से मार दो, कड़ाहे में उबाल दो, सूली पर चढ़ा दो, बिजली का करंट लगा दो, चट्टान से गिरा दो, पत्थर बांध कर समुद्र में डुबो दो, आग लगा दो, गोली से उड़ा दो। नई तकनीक आई तो इंजैक्शन लगाओ, अपराधी को खत्म कर दो। इन तमाम चीजों से आदमी खत्म हुआ, अपराध खत्म नहीं हुए। कानून बने, अदालतें बनीं पर अपराध खत्म नहीं हुए। मनुष्य डरा जरूर पर उसे जब भी मौका मिला उसने कानून की हत्या कर दी। भविष्य में भी यही क्रम चलता रहेगा। 

कानून सख्त से सख्त बनते रहे, विकृत मन जुर्म पर जुर्म करता रहा। फांसी कोई हल नहीं मानव विकृति का। फांसी मनुष्य के दो अधिकार छीन लेती है, पहला-जिंदगी जीने का अधिकार और दूसरा स्वतंत्र व बिना पीड़ा से जीवन व्यतीत करने का अधिकार। मौत की सजा अब सिर्फ इस्लामिक देशों में रह गई है। विश्व के 114 देश सजा-ए-मौत को खत्म कर चुके हैं। अब सिर्फ 58 मुल्कों में फांसी की सजा का प्रावधान है। मृत्यु दंड एक हिंसा है, समस्या का समाधान नहीं। हां, ‘रेयरैस्ट आफ द रेयर’ केस में मृत्यु दंड हो तो हो। मृत्यु दंड एक विकल्प तो हो सकता है परन्तु कानून नहीं। समाज को सभ्य तो बनाया जा सकता है परन्तु समाप्त नहीं किया जा सकता। फांसी मनुष्य को ही खत्म कर देती है। एक निर्दोष को भी साक्ष्य जुटा कर फांसी पर लटकाया जा सकता है और अपराधी साक्ष्यों के अभाव में फांसी से छूट भी सकता है। 

मैंने उपरोक्त बातें क्यों कहीं? क्योंकि जम्मू-कश्मीर के कठुआ कस्बे में 8 साल की एक बच्ची से सामूहिक बलात्कार कर उसकी हत्या कर दी गई। बलात्कार हुआ, हत्या हुई यानी जघन्य अपराध हुआ। बच्ची किसी भी धर्म की हो, इससे अपराध की क्रूरता खत्म नहीं होती। बच्ची तो बच्ची है- कंजक, पूज्या, मेरी बेटी। पर इस अपराध को मजहब के तराजू में तोला जाने लगा। जलसे-जलूस और राजनीति होने लगी। बलात्कार और हत्या का मुद्दा गायब हो गया और मसला बन गया हिंदू-मुस्लिम का। हत्या हुई अल्लाह की बेटी की, बलात्कार हुआ दुर्गा की बेटी से और माजरा बन गया मजहब का। जम्मू-कश्मीर की संयुक्त सरकार की चूलें हिलने लगीं। सर्वोच्च न्यायालय ने स्थिति संभाली। केस लाइन पर आया। कानून अपना काम करेगा। 

कानून में प्रावधान कर दिया कि 12 साल से कम आयु की बच्ची से दुष्कर्म करने वाले को मृत्युदंड दिया जाएगा। दिल्ली में निर्भया बलात्कार और हत्या की आग अभी बुझी भी नहीं थी कि कठुआ केस देश-विदेश में चर्चा का विषय बन गया। प्रशासन समय रहते यदि कठुआ मामले को संभाल लेता तो भारत की जगहंसाई न होती। दंड संहिता में फांसी के प्रावधान की शायद नौबत न आती।  देखो न्याय प्रक्रिया क्या रुख अख्तियार करती है? पर मेरा प्रश्न यह है कि अपराधी को फांसी देने से क्या ऐसे अपराध रुकेंगे? नहीं, मनुष्य में शैतान तो हमेशा रहता है। उस शैतान को फांसी का डर नहीं, उस राक्षस को मृत्यु का भय नहीं। 

यदि ‘कठुआ कांड’ कानून की दृष्टि में एक उदाहरण होता तो ‘उन्नाव बलात्कार’ केस न होता। बच्चियों से बलात्कार और उनकी हत्याओं के समाचार तो आज भी आ रहे हैं। फांसी के प्रावधान के बाद भी आ रहे हैं। संस्कारों से समाज को सभ्य बनाओ। परिवारों में पनप रही नैतिक मूल्यों की कमी को रोको। संबंधों में संवेदना का पुट भरो। हर रोज 93 मामले बलात्कार के हो रहे हैं। 2012 में दुष्कर्म के मामलों की संख्या 24923 थी जो 2013 में 33707 हो गई। हर 15 मिनट में दुष्कर्म का एक मामला हो रहा है। दुष्कर्म कोई बाहरी व्यक्ति नहीं कर रहा, सगे-संबंधी ही दोषी हैं। पुलिस खुद दुष्कर्म के अनेक केसों में संलिप्त है। रक्षक ही भक्षक बने हुए हैं। गरीब महिलाएं जोर-जबरदस्ती की शिकार हो रही हैं। दोष किसको दें? 

नारी-शरीर प्रभु की अद्भुत रचना है। इस रचना को पुरुष सिर्फ वस्तु समझने की भूल करता है। भूल में कानून का ध्यान नहीं रखता और अनर्थ कर देता है। संविधान में उसे पुरुष के बराबर समानता मिली है। उसका शरीर एक मंदिर है। मंदिर में उच्छृंखलता दंडनीय तो है पर फांसी नहीं। नारी के सजने-संवरने के मौलिक अधिकार को पुरुष झपट क्यों लेना चाहता है? पुरुष  को शिक्षित करने की आवश्यकता है। नारी सम्मान पुरुष का दायित्व है।-मा. मोहन लाल पूर्व ट्रांसपोर्ट मंत्री, पंजाब


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Pardeep

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