क्या ‘आरक्षण’ भाजपा की नैया पार लगा पाएगा

punjabkesari.in Friday, Jan 11, 2019 - 04:15 AM (IST)

मोदी सरकार ने आम चुनाव से ठीक पहले ‘आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों’ के लिए आरक्षण का प्रस्ताव पास करके राजनीतिक धमाका किया है। विशेषज्ञों का अनुमान है कि सवर्ण हिन्दू जातियों के बीच पार्टी का जनाधार हाल में कमजोर हो रहा था। पिछले दिनों एस.सी./एस.टी. एक्ट में संशोधन के कारण यह वर्ग पार्टी से नाराज था। मध्य प्रदेश में इसका असर खासतौर से देखने को मिला। 

लाख टके का सवाल यह है कि क्या सरकार के इस फैसले से भाजपा के पक्ष में लहरें पैदा होंगी? कहना मुश्किल है कि यह फैसला लागू हो भी पाएगा या नहीं, पर राजनीतिक लिहाज से यह पेशकश आकर्षक जरूर है। तकरीबन हरेक पार्टी ने इसे समर्थन दिया है। हालांकि मोदी विरोधी मानते हैं कि यह चुनावी चाल है, पर वे इसका विरोध करने की स्थिति में नहीं हैं। सवाल है कि क्या यह चाल भाजपा की नैया पार कराने में मददगार होगी? 

इस आरक्षण की राह में कुछ कानूनी दिक्कतें भी हैं इसलिए सरकार  ने संविधान संशोधन का रास्ता पकड़ा है। कुछ विधि-विशेषज्ञ मानते हैं कि इसे अदालत की मंजूरी नहीं मिलेगी। यह राय सन् 1992 के इन्द्रा साहनी वाले मामले के कारण है। उस केस में नौ जजों की संविधान पीठ ने माना था कि देश में  ‘आर्थिक पिछड़ापन’ आरक्षण का आधार नहीं हो सकता। आर्थिक आधार पर आरक्षण देने के लिए संविधान के अनुच्छेद 15 और 16 में बदलाव की जरूरत इसीलिए महसूस की गई। 

संविधान संशोधन क्यों 
संविधान का अनुच्छेद 15 सभी नागरिकों को समानता का अधिकार देता है। आरक्षण से समानता के इस अधिकार का हनन होता है। इसलिए अनुच्छेद 15 (4) और 15 (5) में सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों या अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए विशेष उपबंध हैं। पर यहां  ‘आर्थिक पिछड़ेपन’ का उल्लेख नहीं है। इन दोनों अनुच्छेदों में ‘आर्थिक पिछड़ेपन’ को जोड़ा गया है। हम जिस जातीय आरक्षण को देख रहे हैं उसके लिए भी संविधान में संशोधन करना पड़ा था। 1951 में संविधान के पहले संशोधन में अनुच्छेद 15 में धारा 4 जोड़ी गई थी।

संविधान में संशोधन करते वक्त एस.सी./एस.टी. का नाम साफ लिखा गया। साथ ही अनुच्छेद 366(24) (25) के तहत अनुच्छेद 341 और 342 में एस.सी./एस.टी. की परिभाषा भी कर दी गई। सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों की परिभाषा नहीं की गई थी। इसे परिभाषित करने के लिए 1953 में काका कालेलकर आयोग और 1978 में बी.पी. मंडल की अध्यक्षता में आयोग बनाए गए। दोनों आयोगों की रिपोर्टों में पिछड़ेपन का एक महत्वपूर्ण आधार जाति है। पर  संविधान में ‘जाति’ शब्द से बचा गया है। ओ.बी.सी. जाति नहीं, वर्ग है, पर यह भी सच है कि ज्यादातर अदालती फैसलों में जाति एक महत्वपूर्ण बिन्दू है। 

50 फीसदी की बाधा
इस आरक्षण के रास्ते में दूसरी बाधा है इसका 50 फीसदी की सीमा से ज्यादा होना। इन्द्रा साहनी मामले में अदालत ने यह सीमा निर्धारित की थी पर सरकार का कहना है कि यह सीमा 15(4) और 16(4) के अंतर्गत सामाजिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए है। चूंकि इस संविधान संशोधन के कारण एक नया आर्थिक वर्ग तैयार हुआ है, जिसका टकराव शेष 50 फीसदी से नहीं है, इसलिए इस संशोधन को संवैधानिक बाधा पार करने में दिक्कत नहीं होगी। 

सन् 1991 में पी.वी. नरसिम्हा राव की सरकार ने आर्थिक आधार पर 10 फीसदी आरक्षण का प्रस्ताव किया था, पर इन्द्रा साहनी केस में संविधान पीठ ने कहा था कि देश में आर्थिक पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण सम्भव नहीं है। अब यदि यह मामला न्यायिक समीक्षा के लिए जाएगा, तो कम से कम दो सवालों पर अदालत को फैसला करना होगा। एक, क्या अनुच्छेद 15 और 16 में संशोधन संविधान के मौलिक ढांचे के अनुरूप हैं? दूसरे यह कि क्या 50 फीसदी की सीमा पार की जा सकती है? 

राजनीतिक औजार
अतीत में कुछ राज्य सरकारों ने भी आर्थिक पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण देने की कोशिशें की थीं। आरक्षण आसान राजनीतिक औजार है, जिसका फायदा हरेक दल उठाना चाहता है। इससे जुड़ी ज्यादातर घोषणाएं चुनावों के ठीक पहले होती हैं। गत वर्ष अप्रैल-मई में हुए कर्नाटक विधानसभा चुनाव के पहले खबरें थीं कि सिद्धरमैया सरकार राज्य में पिछड़ों और दलितों के आरक्षण को 50 फीसदी से बढ़ाकर 70 फीसदी करना चाहती है। हालांकि आरक्षण 50 फीसदी से ज्यादा नहीं किया जा सकता, पर उन्होंने कहा कि हम इसे 70 फीसदी करेंगे। ऐसा तमिलनाडु में हुआ भी है, पर इसके लिए संविधान में 76वां संशोधन करके उसे नौवीं अनुसूची में रखा गया ताकि अदालत में चुनौती नहीं दी जा सके। 

मार्च 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने जाटों को ओ.बी.सी. कोटा के तहत आरक्षण देने के केंद्र के फैसले को रद्द करने के साथ यह भी स्पष्ट किया था कि आरक्षण के लिए नए आधारों को भी खोजा जाना चाहिए। अदालत ने ‘ट्रांसजैंडर’ जैसे नए पिछड़े ग्रुप को ओ.बी.सी. के तहत लाने का सुझाव देकर इस पूरे विचार को एक नई दिशा भी दी थी। 

सबल वर्गों की मांग
हाल के वर्षों में उन सामाजिक वर्गों ने आरक्षण की मांग की है, जो पहले से मजबूत हैं। तमाम राजनीतिक दल ऐसे खड़े होते जा रहे हैं जो किसी एक समुदाय का प्रतिनिधित्व करते हैं। हरियाणा के जाट-आंदोलन की प्रतिक्रिया देश के दूसरे इलाकों में हुई। राजस्थान के राजपूतों ने भी इसकी मांग की। राजस्थान में वसुंधरा राजे से पहले वाली अशोक गहलोत सरकार ने ओ.बी.सी. आयोग की रिपोर्ट के आधार पर कृषक राजपूत वर्ग को आरक्षण देने का निर्णय किया था। 

गुजरात के पाटीदार आंदोलन ने देश में आरक्षण को लेकर एक नई बहस छेड़ी। हाल में महाराष्ट्र में देवेन्द्र फडऩवीस की सरकार ने मराठों को 16 फीसदी आरक्षण देने का फैसला किया है। उधर तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चन्द्रशेखर राव ने मुसलमानों के लिए आरक्षण की मांग की है। वहां विधानसभा में पहले ही पिछड़े मुसलमानों को आरक्षण देने का प्रस्ताव पेश हो चुका है। सबसे बड़ी बात यह है कि आॢथक रूप से समर्थ समुदाय आरक्षण की मांग कर रहे हैं। राजस्थान में गुज्जर,आंध्र में कापू,गुजरात में पाटीदार और महाराष्ट्र में मराठा प्रभावशाली जातियां हैं।-प्रमोद जोशी


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