क्या अरुण जेतली इस बार बजट से किसानों की ‘झोलियां’ भरेंगे

punjabkesari.in Friday, Jan 26, 2018 - 03:46 AM (IST)

मैं न तो अर्थशास्त्री हूं और न ही ज्योतिषी, लेकिन फिर भी इस बार के बजट के बारे में एक भविष्यवाणी कर सकता हूं। 1 फरवरी को वित्तमंत्री अरुण जेतली अपने बजट को किसान के नाम समर्पित करेंगे। बजट के बाद की चर्चा में सरकारी प्रतिनिधि, भाजपा के प्रवक्ता और मीडिया में सरकार से भी ज्यादा सरकारी भोंपू इसे गांव, खेती और किसानी के लिए एक ऐतिहासिक बजट बताएंगे। टी.वी. चर्चा में उद्योग और शेयर बाजार वाले इसे ‘लोकलुभावन’ बजट बताकर निराशा जताएंगे और इस शक को पुख्ता करेंगे कि हो न हो, इस बार जेतली ने अपना दिल और झोली किसान के लिए खोल दी है। 

इस पूर्वानुमान के लिए कोई नक्षत्र गणना नहीं चाहिए। अर्थव्यवस्था की हर रिपोर्ट, देश से हर खबर किसान की बुरी हालत बता रही है। पहले दो साल सूखा, फिर नोटबंदी और अब फसलों के दाम में गिरावट से किसान की कमर टूट चुकी है, लेकिन पिछले 4 साल से मोदी सरकार के कान पर जूं नहीं रेंग रही थी। पिछले कुछ महीनों में हालात बदल गए हैं। देशभर से किसान असंतोष और आंदोलन के समाचार आ रहे हैं। देशभर के किसान संगठन एक मंच पर इक_े हो गए हैं और दिल्ली में अभूतपूर्व ‘किसान मुक्ति संसद’ में अपना शक्ति प्रदर्शन कर चुके हैं और गुजरात के चुनाव परिणाम ने भाजपा को समझा दिया है कि किसानों की नाराजगी मोल लेना महंगा साबित हो सकता है।

संघ परिवार भी खुल कर यह कह रहा है। अगर सरकार को अगला चुनाव जीतना है तो किसानों को रिझाने का यह अंतिम मौका है। इसलिए सवाल यह नहीं है कि इस बजट में किसान समर्थक घोषणाएं होंगी या नहीं। सवाल यह है कि ये घोषणाएं सच्ची होंगी या बनावटी? किसान की झोली में सिर्फ अच्छे-अच्छे डायलॉग ही गिरेंगे या कि बजट में कुछ पैसा भी मिलेगा यानी कि किसान के हाथ में सिर्फ झुनझुना ही होगा या कुछ और भी? अगर आपके मन में भी यह सवाल है तो बजट देखते वक्त एक घोषणा पर ध्यान दीजिएगा। वित्तमंत्री किसानों को फसल का बेहतर भाव दिलाने के लिए क्या घोषणा करते हैं? 

समस्या नई नहीं है और किसी से छुपी भी नहीं है। किसान को अपनी मेहनत का दाम नहीं मिल रहा है। कहने को सरकार हर साल 2 बार न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करती है, लेकिन देश के 6 प्रतिशत किसानों को ही यह भाव नसीब हो पाता है। अधिकांश किसानों को मंडी में मजबूरी में अपनी फसल इस न्यूनतम मूल्य से भी सस्ते में बेचनी पड़ती है। इस साल खरीफ की फसल में किसानों को सरकारी भाव से नीचे बेचने पर 32 हजार करोड़ रुपए का घाटा हुआ। यह तो सीधे-सीधे किसान के साथ लूट है। इसके अलावा जिसे सरकारी दाम मिल भी जाता है वो भी लुट रहा है, चूंकि सरकारी रेट में कोई बचत नहीं है। चुनाव से पहले प्रधानमंत्री ने देश के किसानों से वायदा किया था कि वह उन्हें लागत का डेढ़ गुणा दाम दिलवाएंगे। अब तक तो ऐसा कुछ भी नहीं किया। इसलिए यह बजट सरकार के लिए अपना वायदा निभाने का अंतिम मौका है। 

अखबार की खबरों और सरकार के संकेतों से ऐसा लगता है कि केन्द्र सरकार या तो मध्यप्रदेश सरकार की तर्ज पर भावान्तर भुगतान योजना को शुरू करेगी या फिर वित्तमंत्री ‘मार्कीट एश्योरैंस स्कीम’ (एम.ए.एस.) जैसी कोई योजना लाएंगे। जरूर कुछ ‘प्रधानमंत्री किसान समर्थन योजना’ जैसा आकर्षक नाम होगा। मार्कीट एश्योरैंस स्कीम के तहत सरकार गेहूं और धान के अलावा बाकी फसलों की खरीद भी कर सकेगी। जब भी किसी फसल का भाव सरकार द्वारा घोषित समर्थन मूल्य से नीचे गिरेगा, तब सरकार बाजार में दखल देकर फसल की खरीद करेगी ताकि किसान को घाटा न उठाना पड़े। यहां तक बात अच्छी है। लेकिन पेंच यह है कि पैसा कौन-सी सरकार देगी? 

केन्द्र सरकार ने कुछ महीने पहले ही राज्यों को इस योजना का जो प्रारूप भेजा था, उसके मुताबिक इस अतिरिक्त खरीद का सिर्फ 30 प्रतिशत बोझ केन्द्र सरकार उठाएगी, बाकी खर्चा राज्य सरकार को करना होगा। दिक्कत यह है कि अधिकांश, राज्य सरकारों के खजाने खाली हैं। यानी कि ‘न नौ मन तेल होगा, न राधा नाचेगी।’ जहां लागू हो भी गई, वहां इससे फल, सब्जी और दूध उत्पादकों को कोई फायदा नहीं होगा, क्योंकि इनके लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित नहीं होता। उधर भावान्तर भुगतान योजना का मूल सिद्धांत यह है कि अगर किसान को न्यूनतम सरकारी दाम नहीं मिलता तो नुक्सान की भरपाई सरकार करेगी, लेकिन अगर मध्य प्रदेश का अनुभव देखें तो इस स्कीम से किसान को फायदा नहीं हुआ, बल्कि इसके बहाने बिचौलियों और व्यापारियों की चांदी हुई। जैसे ही यह योजना शुरू हुई, तो व्यापारियों ने मिलीभगत से उन फसलों का रेट गिरा दिया और जिस दिन इस योजना का समापन हुआ उससे अगले दिन दाम चढ़ गया। ठगी गई सरकार, ठगा गया किसान। 

वैसे भी इस योजना में किसान के लिए इतनी कागजी कार्रवाई की अनिवार्यता थी कि सिर्फ एक-तिहाई किसान ही इसके लिए अपना नाम रजिस्टर करवा पाए। तिस पर हर किसान के लिए अधिकतम फसल उत्पादन की सीमा लगा दी गई थी जो कई फसलों में सामान्य उपज से भी कम थी। कुल मिलाकर नतीजा यह हुआ कि किसान को सामान्य से कम दाम मिला और समय पर मुआवजा भी नहीं मिला। अगर अरुण जेतली इस तर्ज पर देश भर के किसानों के लिए योजना बनाते हैं तो यह किसानों के नाम पर एक और बड़ा मजाक होगा। अगर सरकार किसानों की अवस्था और अपने वायदे के बारे में तनिक भी गंभीर है तो किसान को फसलों का वाजिब दाम दिलवाने के कई प्रयास एक साथ करने होंगे। पहला, न्यूनतम समर्थन मूल्य को कम से कम लागत का डेढ़ गुणा किया जाए।

दूसरा, यह सभी कृषि उत्पादों के लिए घोषित किया जाए। अन्न, दलहन, तिलहन आदि के अलावा फल-सब्जी, वन उपज, दूध और अंडा, सब का न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित किया जाए। तीसरा, सरकार इस दाम पर फसलों की खरीद सुनिश्चित करने के लिए कम-से-कम हर ब्लाक में फसल खरीद केन्द्र बनाए। इस खरीद का दाम केन्द्र सरकार दे। पांचवां, न्यूनतम समर्थन मूल्य से नीचे बोली मंडी में न लगे और अगर इससे व्यापारी को घाटा हो तो उसका सरकार भुगतान करे। छठा, सरकार अपनी आयात-निर्यात नीति में संशोधन करे, जब फसल ज्यादा हो तो निर्यात की खुली छूट और गंभीर किल्लत होने पर ही आयात किया जाए। 

अगर इस बजट में सरकार इन सब प्रस्तावों को लागू करने का साहस दिखाती है तो जाहिर है किसान को राहत मिलेगी और सरकार को किसान का समर्थन भी मिलेगा। लेकिन अगर अरुण जेतली पिछले वर्षों की तरह ही खाली डायलाग से किसान का पेट भरना चाहेंगे तो किसान अब यह बर्दाश्त नहीं करेगा। यह जानने के लिए भी ज्योतिषी होने की जरूरत नहीं है।-योगेन्द्र यादव


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