नूरजहां से सऊदी अरब में हुए घिनौने व्यवहार पर कथित सैक्यूलरवादी मौन क्यों

punjabkesari.in Friday, Feb 24, 2017 - 01:11 AM (IST)

अभी हाल ही में गुजरात की एक मुस्लिम महिला से जुड़ा दुर्भाग्यपूर्ण और बेहद निंदनीय मामला प्रकाश में आया, जिससे सभ्य समाज को एक बार फिर जेहादी मानसिकता और इस्लामी कट्टरवाद से रू-ब-रू होने का अवसर मिला। अत्याचार करने वाले और उसका शिकार दोनों मुसलमान थे, इसलिए सदैव की तरह देश के किसी भी बुद्धिजीवी, उदारवादी और स्वघोषित पंथनिरपेक्षकों ने इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी और मीडिया का बड़ा भाग भी इस पर मौन रहा। 

अहमदाबाद की रहने वाली नूरजहां सऊदी अरब के दम्माम में एक ब्यूटी पार्लर में काम करती थी, जहां उसका मालिक उसे ‘होम सॢवस’ के लिए मजबूर करता था। होम सर्विस का अर्थ देह व्यापार होता  है, जिसमें  सैक्स स्लेव को ग्राहकों के घरों में भेजकर सर्विस दी जाती है। बकौल 38 वर्षीय नूरजहां, वह हैदराबाद की उन दो लड़कियों के साथ दम्माम में थी, जिनमें से एक ने अपनी कलाई काटकर आत्महत्या करने की भी कोशिश की थी। नूरजहां ने बताया कि यदि वे ‘सैक्स स्लेव’ बनने के लिए तैयार नहीं होती थीं तो उनके साथ पशुओं से भी बदतर व्यवहार किया जाता और बाल खींचकर सिर को दीवार पर मारा जाता था। सैक्स स्लेव बनने से इंकार करने के कारण नूरजहां को जेल भी जाना पड़ा। गत वर्ष अक्तूबर में नूरजहां अपने शौहर के साथ स्वदेश लौटी है। 

क्या यह सत्य नहीं कि इस्लामी कट्टरपंथी या जेहादी ‘सैक्स स्लेव’ और गैर-मुस्लिम महिलाओं के साथ बलात्कार को उचित ठहराने के लिए इस्लाम का सहारा लेते हैं। अवसर मिलने पर मुस्लिम महिलाओं को भी अपनी हवस का शिकार बनाने से नहीं चूकतेहैं। कुछ वर्ष पूर्व, सीरिया में आई.एस. के चंगुल से मुक्त हुई यजीदी महिलाओं ने जो कुछ खुलासा किया, वह न केवल भयावह है बल्कि आंख खोलने वाला भीहै। इन महिलाओं के  अनुसार आतंकी उनके साथ क्रूरता की सारी हदें पार करते हुए सामूहिक बलात्कार करतेथे। 

मुस्लिम बहुल देश लेबनान में फ्रांसीसी  नेत्री मरीन-ले-पेन को इस्लामी कट्टरवाद का सामना करना पड़ा। जब वह बेरूत में सुन्नी मुफ्ती शेख अब्देल लतीफ  डेरियन से मिलने पहुंची तो उन पर इस्लामी हिजाब ओढऩे का दबाव डाला गया जिसे करने से सुश्री पेन ने इंकार कर दिया। 

भारतीय उपमहाद्वीप के अधिकतर मुसलमान स्वयं को ‘उम्मा’ के रूप में देखते हैं। ‘उम्मा’ एक अरबी शब्द है, जिसका उपयोग इस्लामी समुदाय या वृह्द-अरबत्व के परिप्रेक्ष्य में होता है। यदि ऐसा है तो दुनिया के सभी इस्लामी देशों को मजहब के आधार पर एक राष्ट्र ही हो जाना चाहिए था। क्या ऐसा हुआ या आगे ऐसा संभव है? क्या कारण है कि इस्लामी राष्ट्र होते हुए भी अरब देश, पाकिस्तान और ईरान के बीच ईंट-कुत्ते का वैरभाव है? 

सऊदी अरब ने वीजा उल्लंघन के मामलों में 39 हजार पाकिस्तानियों को  उनके देश वापस भेज दिया। अंदेशा है कि इनमें से कई आतंकी संगठन आई.एस. से सहानुभूति रखते हैं। कुवैत भी पाकिस्तान सहित 5 मुस्लिम राष्ट्र के नागरिकों को वीजा देने पर प्रतिबंध लगा चुका है। इतना विरोधाभास है कि जहां सऊदी अरब आतंकवाद के विरुद्ध मुखर रूप से खड़ा तो होता है, किन्तु वहीं इस्लाम के प्रचार के नाम पर वह दक्षिण एशिया (भारत सहित) देशों में हर वर्ष करोड़ों डॉलर भेजता है, जिसका उपयोग मदरसों के माध्यम से जेहाद और अलगाव की शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए किया जाता है। 

14 अगस्त 1947 से विश्व में इस्लामी राष्ट्र के रूप में स्थापित पाकिस्तान, ‘‘उम्मा’’ सिद्धांत और कट्टर इस्लामी दर्शन की उपज है, जिसमें उसे वामपंथियों और अंग्रेजी शासकों का भरपूर साथ मिला। रक्तरंजित बंटवारे के प्रतीक पाकिस्तान में प्रारंभ से मजहब और राजनीति के केन्द्र में हिंसा व कट्टरता रही है। यदि मजहब सभी मुस्लिमों को एक सूत्र में बांधता है, तो ऐसा क्यों है कि एक सुन्नी मुस्लिम शिया मुसलमान के खून का प्यासा बना हुआ है और सुन्नी भी अपने समुदाय के लोगों को मजहब के नाम पर मौत के घाट उतारते हैं? 

हाल ही में पाकिस्तान के सिंध स्थित सूफी संत लाल शाहबाज कलंदर की दरगाह पर आई.एस. के आतंकी हमले में 80 से अधिक लोगों की मौत हो गई थी। क्या यह सत्य नहीं कि विश्व में जितने मुस्लिम  सहधर्मी मुसलमानों के हाथों हलाक होते हैं, उतने गैर-मुस्लिमों के हाथों नहीं मारे जाते? मजहब के आधार पर तय हुई किसी देश की राष्ट्रीयता कितनी खोखली नींव पर टिकी होती है, पाकिस्तान उसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। 

जिस राष्ट्र के ङ्क्षचतन का आधार कट्टरवाद, मजहबी और ‘‘काफिर’’ व ‘‘कुफ्र’’ के घृणास्पद दर्शन से प्रेरित हो, वह न केवल विश्व के लिए, साथ ही उनके अपने नागरिकों के लिए भी घातक है। इसलिए 1971 में पाकिस्तान दो हिस्सों में बंट गया। आज खंडित पाकिस्तान फिर से टूटने के कगार पर है। ब्लूच, सिंध और पख्तून इस्लाम के नाम पर बनी कुत्सित व्यवस्था में घुटन महसूस कर रहे हैं और स्वतंत्रता के लिए छटपटा रहे हैं। 

14 वर्ष पूर्व 2003 में, मुझे बतौर सांसद ‘साफमा’ प्रतिनिधिमंडल के सदस्य के रूप में पाकिस्तान जाने का अवसर मिला। इस दौरान मैंने एक स्थानीय न्यूज चैनल की बहस में भी हिस्सा लिया। जहां एक दर्शक ने मुझसे सवाल किया कि भारत-पाकिस्तान के बीच समस्या का मूल कारण क्या है? मेरा उत्तर था -भारतीय उपमहाद्वीप में केवल दो प्रकार के लोग रहते हैं, जिसमें एक हिन्दू है तो दूसरा वह है जिनके पूर्वज हिन्दू थे।

विश्व के इस भू-भाग में लगभग सभी मुसलमान मतांतरित हिन्दुओं की ही संतानें हैं। भले ही उनकी पूजा पद्धति बदल गई हो, परंतु उनकी संस्कृति और जीवनशैली को प्रेरणा इसी भारतीय उपमहाद्वीप की हिन्दू व बौद्ध परंपराओं से मिली है परन्तु इस सच्चाई को नकारते हुए अधिकतर मुस्लिम स्वयं को अरब संस्कृति से जोडऩे का असफल प्रयास करते आए हैं जबकि अरब और मध्यपूर्व के देश,  भारतीय उपमहाद्वीप के मुसलमानों को अपने समकक्ष नहीं मानते और न ही अपने देश की नागरिकता आसानी से प्रदान करते हैं। 

कट्टर इस्लामी मानसिकता और उसके द्वारा सिंचित आतंकी विषबेल, भारत में सैकुलरिस्टों के पोषण से कश्मीर से लेकर केरल तक फैल चुकी है। गत वर्ष केरल से लापता युवक-युवतियों का आई.एस. में भर्ती होना और कश्मीर में आजादी के नाम पर स्कूलों को आग के हवाले करना व सैनिकों पर पथराव इसी खतरनाक चिंतन को दृढ़ता प्रदान करता है। 

यदि कश्मीर की किसी मुस्लिम महिला के साथ नूरजहां जैसा घृणित व्यवहार हुआ होता तो सभ्य समाज, झोलाछाप स्वयंसेवी संगठन, तथाकथित सैकुलरिस्ट और वामपंथी इसके विरोध में उठ खड़े होते किन्तु सऊदी अरब में भारत की बेटी नूरजहां के साथ हुए नरकतुल्य बर्ताव पर वे सभी चुप्पी साधे बैठे हैं। क्यों?


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