‘रोहिंग्या’ शरणार्थियों से ही ‘आतंकवाद’ का खतरा क्यों

punjabkesari.in Monday, Sep 18, 2017 - 12:15 AM (IST)

केवल एक ही भाषा के मामूली से ज्ञान की बदौलत भारतीय पर्यटक के रूप में आप इटली में हर जगह घूम सकते हैं-रोम, वैनिस, मिलान, बोलोगना इत्यादि। मेरा इशारा इतालवी भाषा की ओर नहीं बल्कि बंगाली की ओर है। इटली देश बंगलादेशी आप्रवासियों से भरा पड़ा है और वह सबके सब एक ही किस्म के लोग हैं। वह सभी पुरुष हैं और सभी युवा हैं, यानी  25 से 35 वर्ष के बीच। उनके शरीर की बनावट भी सामान्यत: एक जैसी है-यानी नाटे, दुबले-पतले और काले।

एक अन्य बात उनमें यह सांझी है कि वह सभी बहुत परिश्रमी हैं। उनमें से जो अभी-अभी आए हैं उनके पास कोई पूंजी नहीं है इसलिए वह अपने गुजारे के लिए गलियों में घूम-फिर कर चीजें बेचते हैं। पर्यटकों को वह सैल्फी स्टिक्स, प्लास्टिक के खिलौनेनुमा छोटे-छोटे हैलीकाप्टर, ठंडा पानी, कामचलाऊ रेनकोट और इसी तरह की अन्य चीजें बेचते हैं।

जो लोग कुछ अधिक समय से यहां आए हुए हैं और जिनके दस्तावेज सही हैं, वे होटलों में वेटर और शैफ के रूप में काम करते हैं तथा कुछ लोग इतालवियों के स्वामित्व वाले छोटे-मोटे फ्रूट स्टाल या इस तरह की अन्य चीजों के स्टालों का प्रबंधन करते हैं।

मैं सामान्यत: टूटी-फूटी बंगाली भाषा में उनके साथ बातचीत करता हूं और उनकी जिंदगियों के बारे में पूछता हूं। आप यह तो स्वत: ही अंदाजा लगा सकते हैं कि उनका जीवन बहुत कठिनाइयों भरा है। मेरे मन में उनके हौसले और दृढ़ता के प्रति बहुत अधिक सम्मान की भावना है। फिर भी मुझे उनकी दयनीय जिंदगी के प्रति हमदर्दी है।

अपने घर-परिवार तथा मित्र मंडलियों से दूर किसी विदेशी धरती पर रहना हम में से किसी के लिए भी आसान नहीं होता। इस मामले में सभी इंसान एक जैसे ही हैं। बेशक इटली में कमाई के कुछ अधिक और आसान मौके उपलब्ध हैं तो भी कोई दुर्लभ इतालवी बंगलादेशी ही ऐसा होगा जो किसी न किसी पड़ाव पर स्वदेश लौटना नहीं चाहता होगा और इटली में पूरी तरह प्रसन्न हो।

मैं गुजरातियों की एक ऐसी बिरादरी से संबंधित हूं जो ऐतिहासिक रूप में कोई अधिक पढ़ी-लिखी नहीं रही, लेकिन बहुत उद्यमी है और इस बिरादरी के लोग कठिन से कठिन काम करने से घबराते नहीं। यही कारण है कि दुनिया भर में ‘पटेल मोटल’ किसी मुहावरे की तरह प्रसिद्ध हो गया। लेकिन अधिकतर लोग यह नहीं जानते होंगे कि अमरीका में अधिकतर पाटीदार खाली हाथ ही यहां पहुंचते हैं। वे ऐसे कस्बों और दूरदराज के गांवों से आते हैं जहां स्थानीय अवसरों की कमी होती है। अमरीका में आकर  उन्हें शारीरिक श्रम करना पड़ता है।

मेरे अपने माता-पिता और बहन को ऐसे ही अमरीकी मोटलों में काम करना पड़ा था जो उनकी अपनी मालिकी नहीं थे। इसका अर्थ यह था कि उन्हें कमरे साफ करने पड़ते थे और सभी काम करने पड़ते थे जो भारतीय मध्यवर्गीय लोग कभी नहीं करते। जहां तक अपनी कोई जमीन-जायदाद खरीदने की बात है तो अमरीका में बहुत थोड़े पाटीदार ही इसका दावा कर सकते हैं।

अधिकतर आप्रवासियों के मामले में ऐसा ही होता है। आजकल भारत तथा शेष दुनिया में हमें एक अन्य प्रकार के आप्रवासी यानी शरणाॢथयों से निपटना पड़ रहा है। ये शरणार्थी चाहे सीरियाई हों या रोहिंग्या, उनमें से हर कोई जबरदस्त ङ्क्षहसा के डर से भागा हुआ है। मध्य-पूर्व में युद्ध अमरीका और ब्रिटेन द्वारा शुरू किया गया था और फिर उसमें फ्रांस जैसे अन्य यूरोपीय देश शामिल हो गए। वैसे यह  सभी  देश इस युद्ध के परिणामों की कोई जिम्मेदारी लेने से इंकारी हैं।

अमरीका तो सदा से बहुत दूर और दोनों ओर से विशाल महासागरों से घिरा हुआ सुरक्षित स्थिति में है और इसे अपनी करतूतों के नतीजे नहीं भुगतने पड़ते। यह कोरिया और वियतनाम में ऐसे युद्ध लड़ सकता है जिनकी आंच इसके अपने घर तक नहीं पहुंच सकती।

मैं अक्सर विश्व भर में होने वाली घटनाओं के बारे में समाचार एजैंसियों द्वारा जारी की गई तस्वीरें देखता रहता हूं। अधिकतर पाठकों को उस भयावह ङ्क्षहसा की तस्वीरें देख कर सदमा लगेगा जो ङ्क्षहसा सीरियाइयों को देश छोड़ कर भागने पर मजबूर कर रही है। इस प्रकार के बेघर और दुखी लोगों के प्रति हमारे मन में हमदर्दी इतनी कम क्यों है? इसका कारण यह है कि हम उनके मजहब को एक विशेष दृष्टिकोण से देखते हैं।

रोहिंग्या लोगों के विरुद्ध बढ़ती जा रही पाश्विकता के विषय में भारतीय सरकार ने जिस प्रकार की उपेक्षा भरी प्रतिक्रिया व्यक्त की है उससे मैं बहुत निराश हूं। क्या इसका अर्थ यह लगाया जाए कि बर्मा के सत्ता तंत्र द्वारा उनके विरुद्ध किए जा रहे अपराधों की रिपोर्टों पर हमें विश्वास नहीं है? क्या हमारा यह मानना है कि वे लोग अपने घरों को छोड़कर इसलिए भारत आ रहे हैं ताकि शरणार्थी शिविरों में रहने का ‘मजा’ ले सकें? यदि यह बात है तो हम अवश्य ही भ्रम की स्थिति में जी रहे हैं।

क्या हम भी अपनी सरकार की तरह यह मानते हैं कि रोहिंग्या लोग केवल मुस्लिम होने के कारण आतंकवादी खतरा पैदा करते हैं? उल्लेखनीय है कि हम दुनिया और अन्य इंसानों को ऐसी घटिया दृष्टि से ही देखते हैं। भारत सरकार ने नीतिगत घोषणा की है कि वह पाकिस्तान और बंगलादेश से अल्पसंख्यक समुदायों से संबंधित शरणार्थियों को ही स्वीकार करेगी। इस घोषणा का किसी न किसी रूप में यही अर्थ निकलता है कि भारत केवल गैर-मुस्लिमों का ही स्वागत करेगा।

बर्मा यानी म्यांमार एक बुद्धिस्ट देश है जो मुस्लिम अल्पसंख्यकों का दमन कर रहा है। इस दमन के मद्देनजर हमारी नीति को सांप क्यों सूंघ गया है। एक महान लोकतंत्र के रूप में हमें अवश्य ही हमारी शरण में आने वाले लोगों के अधिकारों के पक्ष में आवाज उठानी चाहिए और उनकी जिम्मेदारी लेनी चाहिए।

हिन्दू धर्म की एक-एक शिक्षा हमें यह बताती है कि ऐसा करना हमारा कत्र्तव्य है। एक तरफ तो हम विदेशों में गए भारतीय आप्रवासियों की उपलब्धियों पर बहुत गर्व करते हैं, हालांकि इनमें से बहुत से लोग अवैध रूप में वहां पहुंचे हैं। दूसरी ओर यदि हमारे यहां अन्य देशों से आप्रवासी आते हैं तो हम उन्हें ऐसे आतंकी समझते हैं जो हमारे संसाधनों पर एशो-आराम करने आए हैं। क्या ऐसा करना सरासर पाखंडबाजी नहीं? 
(लेखक के विचार निजी हैं)


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