पंजाबियों में क्यों भर रहा ‘बेगानापन’

punjabkesari.in Saturday, Sep 21, 2019 - 02:33 AM (IST)

मौसम में तल्खी घटी है मगर समाज में बढ़ी है तथा और बढऩे के संकेत हैं। जो घटित हो रहा है, उससे भविष्य की तस्वीर अच्छी नजर नहीं आ रही। हमने अज्ञानतावश वे काम किए जिन्होंने समाज को सामाजिक पहचानों के विभाजन की ओर धकेला। जातीय पहचानों के विभाजन बढ़े। नैतिक मूल्यों में गिरावट आई। इस सामाजिक पतन के जहां राजनीतिक पहलू हैं, वहीं सांस्कृतिक, आर्थिक, सामाजिक तथा धार्मिक पहलू भी हैं। इनकी निशानदेही पर ही समाज के नए तथा तल्ख चेहरों की पहचान की जा सकती है। 

पंजाब में ही पिछले कुछ दिनों की ताजा घटनाओं को लें तो हम काफी उदास कर देने वाले माहौल से गुजरे हैं। दिल्ली के तुगलकाबाद इलाके में प्राचीन गुरु रविदास मंदिर को डी.डी.ए. द्वारा गिराया जाना बाकी देश के मुकाबले पंजाब को अधिक गर्मी दे गया। चाहे इस सारी कार्रवाई में माननीय सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को ही लागू किया जाना था लेकिन भावनाएं आहत हुईं तथा लोगों ने उनको प्रकट किया। जो मर्जी कहो, ऐसे अवसरों पर हर तरह के विचार हवा में लहराते हैं जिनको आगे हवा मिलती है। ऐसे ही ताजा घटनाक्रम में एक सीरियल को लेकर वाल्मीकि भाईचारे का रोष उबलना भी काफी तनावपूर्ण था। इसके साथ ही रोज-रोज के बंद से पहले से ही परेशान कामकाज वाले लोगों का उबाल भी दर्ज हो गया। यह कई बार दिखाई न देते की निशानदेही ही होती है। 

वामपंथियों का मोर्चा
कश्मीर के अनुच्छेद 370 को रद्द किए जाने के विरोध में वामपंथियों का मोर्चा एक अन्य बहुत महत्वपूर्ण प्रश्र पैदा कर गया। चाहे सरकार ने इस रैली को इजाजत नहीं दी परंतु यह मुम्बई में दिए गए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बयान, कि कश्मीर बारे फैसला देश की 130 करोड़ आबादी की आवाज है, को चुनौती है। जब सरकारें ऐसे अवसरों पर जातीय पहचानों की राजनीति खेलते हुए लोगों को आपस में टकराने तक की हद तक ले जाती हैं, तब वामपंथियों की यह पहुंच पंजाब में बहुत कुुछ अलग तरह का घटित होने का संकेत देती है। 

भाषायी धौंस के विरुद्ध रोष 
अब ङ्क्षहदी के नाम पर केन्द्र सरकार के मंत्रियों का ‘एक  देश एक भाषा’ वाला बयान भी पंजाब में डोलता नजर आया है। भाषा विभाग पंजाब के ‘हिंदी दिवस’ कार्यक्रम में जिस तरह से पंजाबी भाषा पर हमले किए गए, वहां उपस्थित लेखकों ने तो विरोध दर्ज करवाया ही, सोशल मीडिया, अखबारों, चैनलों पर भी विरोध की बाढ़ आ गई। यह भी पंजाब के एक विशेष उबाल दर्जे  का संकेत है। यह विरोध केवल भाषायी धौंस के विरुद्ध नहीं है, इसके धुर अंतर में कुछ ऐसा पड़ा है जो वर्तमान सत्ताधारी पक्ष के एजैंडों के विरुद्ध है। ऐसा भी नहीं कि यह स्पष्ट नहीं है। लोगों ने, विशेषकर पंजाबी लेखकों ने साफ-साफ लिखा है कि भाषायी पहचानों के विरुद्ध संघ के एजैंडे का वे खुलकर विरोध करते हैं। तभी शायद केन्द्रीय मंत्रियों को इस मामले में यू-टर्न भी लेना पड़ गया तथा पंजाब में हुई ज्यादतियों की माफी तक मांगे जाने की भी खबर आ गई। 

वित्तीय पूंजी ने रोगी कर दिए 
लोगों के मनों में अंदरखाते जिन तल्खियों के बढऩे के कारणों की ओर हम संकेत कर रहे हैं, उनके पीछे वित्तीय पूंजी (फाइनांस कैपिटल) का जो लोगों की मानसिकता पर प्रभाव है, वह भी स्पष्ट नजर आने लगा है। अर्थव्यवस्था में चूंकि कुछ भी निश्चित नहीं होता, कुछ भी हो सकता है जो व्यक्ति में एक असुरक्षा की भावना पैदा करता है। जब आप असुरक्षित होते हो तो लम्बे समय में यह बीमारी का रूप धारण कर आपको अकेलेपन या बेगानेपन की ओर ले जाता है। इस वक्त हम अकेलेपन/बेगानेपन के मारे हैं, तभी सहमे हुए हैं। यह रोग दिखाई नहीं देता लेकिन समाज से चिपका हुआ है। बहुत ही बारीक रोग है। इसकी निशानदेही ही नहीं की जा रही। इस रोग से रोष तथा विद्रोह पैदा हो रहा है। एक सकारात्मक बात भी है। समाज जागेगा तथा कुछ नया सृजित कर सकेगा। परंतु फिर भी कुछ टूटने का एहसास निरंतर बना हुआ है। 

हम अपने नैतिक मूल्यों को खो चुके हैं। हम अपने सामाजिक मूल्य अपनी अगली पीढ़ी को दे ही नहीं सके। हम गुस्सैल नहीं, सब्र से काम लेने वाले, ज्ञान के वारिस थे। हमारे पास गुरु साहिबान का दर्शन,सूफियों की मोहब्बत थी। हम नाथों के दर्शन पर चलते थे। हम बाबा फरीद से सबक लेते थे। हमने यह त्याग दिया, किसी और ही रास्ते पर चल पड़े। पैसे की हवस में ही डूब गए। कोई और ही संकट पैदा कर लिया। माया की खींच इतनी कि ‘ब्रेन-ड्रेन’ हो गया। 

पंजाब बूढ़ों तथा बीमारों का राज्य बनकर रह गया या फिर बीमारियों तथा भूमिगत पानी की कमी वाला पंजाब। हमने इस पंजाब की कल्पना नहीं की थी। हमने बंजर मन पंजाब की कल्पना नहीं की थी मगर पंजाब बंजर हो गया, सामाजिक पहलू से भी, सांस्कृतिक पहलू से भी। राजनीतिक पक्ष से भी और नैतिक पक्ष से भी। यह हमारे सपनों का पंजाब नहीं है। हमारे सपनों का पंजाब वारिस शाह का वारिस है।-देसराज काली (हरफ-हकीकी)
 


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