बलात्कार पर राजनीति क्यों

punjabkesari.in Monday, Dec 16, 2019 - 02:17 AM (IST)

मोदी जी ने, जब वे गुजरात के मुख्यमंत्री थे, यू.पी.ए. सरकार पर हमला करते हुए दिल्ली को ‘रेप राजधानी’ बताया था। अब जब वे प्रधानमंत्री हैं, तो राहुल गांधी भारत को ही ‘रेप देश’ बता रहे हैं। इस पर घमासान छिड़ा है, दोनों प्रमुख दल एक-दूसरे पर हमला कर रहे हैं। मीडिया में शोर मच रहा है। सड़कों पर नौटंकी हो रही है। रैलियां, झंडे और प्रदर्शन किए जा रहे हैं। इस सबसे क्या निकलेगा? क्या देश की बहू-बेटियों की इज्जत बच जाएगी?

क्या उनके बलात्कार होने बंद हो जाएंगे? क्या वे बेखौफ  होकर अपने गांव, शहर या सड़क पर निकल सकेंगी? क्या पुलिस बलात्कार के आरोपियों को फुर्ती से पकड़ कर सजा दिलवाएगी? क्या रईसजादे या नेताओं के अय्याश बेटे कानून और पुलिस के डर से सुधर जाएंगे? ऐसा कुछ भी नहीं होगा। ये दोनों दल उछल-कूदकर चुप हो जाएंगे। इससे कुछ नहीं बदलेगा। फिर यह नाटक क्यों? बलात्कार को रोकने में कोई सरकार, अकेली पुलिस सफल नहीं हो सकती। 

क्योंकि इतने बड़े मुल्क में किस गांव, खेत, जंगल, कारखाने, मकान या सुनसान जगह बलात्कार होगा, इसका अंदाजा कोई कैसे लगा सकता है? वैसे भी जब हमारे समाज में परिवारों के भीतर बहू-बेटियों के शारीरिक शोषण के अनेकों समाज शास्त्रीय अध्ययन उपलब्ध हैं तो यह बात सोचने की है कि कहीं हम दोहरे मापदंडों से जीवन तो नहीं जी रहे? उस स्थिति में हमारे पुरुषों के रवैये में बदलाव का प्रयास करना होगा। जो एक लम्बी व धीमी प्रक्रिया है। समाज में हो रही आर्थिक उथल-पुथल, शहरीकरण, देशी और विदेशी संस्कृति का घालमेल और मीडिया पर आने वाले कामोत्तेजक कार्यक्रमों ने अपसंस्कृति को बढ़ाया है। जहां तक पुलिस वालों के खराब व्यवहार का सवाल है, तो उसके भी कारणों को समझना जरूरी है। 1980 से राष्ट्रीय पुलिस आयोग की रिपोर्ट धूल खा रही है। इसमें पुलिस की कार्यप्रणाली को सुधारने के व्यापक सुझाव दिए गए थे। पर किसी भी राजनीतिक दल या सरकार ने इस रिपोर्ट को प्रचारित करने और लागू करने के लिए जोर नहीं दिया। नतीजतन हम आज भी 200 साल पुरानी पुलिस व्यवस्था से काम चला रहे हैं। 

पुलिस को नहीं मिलता पर्याप्त प्रशिक्षण
पुलिस वाले किन अमानवीय हालातों में काम करते हैं, इसकी जानकारी आम आदमी को नहीं होती। जिन लोगों को वी.आई.पी. बताकर पुलिस वालों से उनकी सुरक्षा करवाई जाती है, ऐसे वी.आई.पी. अक्सर कितने अनैतिक और भ्रष्ट कार्यों में लिप्त होते हैं। यह देखकर कोई पुलिसवाला कैसे अपना मानसिक संतुलन रख सकता है? समाज में भी प्राय: पैसे वाले कोई अनुकरणीय आचरण नहीं करते। पर पुलिस से सब सत्यवादी हरीशचंद्र होने की अपेक्षा रखते हैं। हममें से कितने लोगों ने पुलिस ट्रेङ्क्षनग कालेजों में जाकर पुलिस के प्रशिक्षणार्थियों के पाठ्यक्रम का अध्ययन किया है? इन्हें परेड और आपराधिक कानून के अलावा कुछ भी ऐसा नहीं पढ़ाया जाता जिससे ये समाज की सामाजिक, आर्थिक व मनोवैज्ञानिक जटिलताओं को समझ सकें। ऐसे में हर बात के लिए पुलिस को दोष देने वाले नेताओं और मध्यवर्गीय जागरूक समाज को अपने गिरेबां में झांकना चाहिए। 

समस्या का मनोवैज्ञानिक पहलू
इसी तरह बलात्कार की मानसिकता पर दुनियाभर में तमाम तरह के मनोवैज्ञानिक और सामाजिक अध्ययन हुए हैं। कोई एक निश्चित फार्मूला नहीं है। पिछले दिनों मुम्बई के एक अति सम्पन्न मारवाड़ी युवा ने 65 वर्ष की महिला से बलात्कार किया तो सारा देश स्तब्ध रह गया। इस अनहोनी घटना पर तमाम सवाल खड़े किए गए। पिता द्वारा पुत्रियों के लगातार बलात्कार के सैंकड़ों मामले रोज देश के सामने आ रहे हैं। अभी दुनिया ऑस्ट्रिया के गाटफ्राइट नाम के उस गोरे बाप को भूली नहीं है जिसने अपनी ही सबसे बड़ी बेटी को अपने घर के तहखाने में दो दशक तक कैद करके रखा और उससे दर्जन भर बच्चे पैदा किए। इस पूरे परिवार को कभी न तो धूप देखने को मिली और न ही सामान्य जीवन। घर की चारदीवारी में बंद इस जघन्य कांड का खुलासा 2011 में तब हुआ जब गाटफ्राइट की एक बच्ची गंभीर रूप से बीमारी की हालत में अस्पताल लाई गई। अब ऐसे कांडों के लिए आप किसे जिम्मेदार ठहराएंगे। पुलिस को या प्रशासन को? यह एक मानसिक विकृति है, जिसका समाधान दो-चार लोगों को फांसी देकर नहीं किया जा सकता। 

इसी तरह पिछले दिनों एक प्रमुख अंग्रेजी टी.वी. चैनल के एंकरपर्सन ने अति-उत्साह में बलात्कारियों को नपुंसक बनाने की मांग रखी। कुछ देशों में यह कानून है। पर इसके घातक परिणाम सामने आए हैं। इस तरह जबरन नपुंसक बना दिया गया पुरुष हिंसक हो जाता है और समाज के लिए खतरा बन जाता है। बलात्कार के मामलों में पुलिस तुरत-फुरत कार्रवाई करे और सभी अदालतें हर दिन सुनवाई कर 90 दिन के भीतर सजा सुना दें। सजा ऐसी कड़ी हो कि उसका बलात्कारियों के दिमाग पर वांछित असर पड़े और बाकी समाज भी ऐसा करने से पहले डरे। इसके लिए जरूरी है कि जागरूक नागरिक, केवल महिलाएं ही नहीं पुरुष भी, सक्रिय पहल करें और सभी राजनीतिक दलों और संसद पर लगातार तब तक दबाव बनाए रखें जब तक ऐसे कानून नहीं बन जाते। कानून बनने के बाद भी उनके लागू करवाने में जागरूक नागरिकों को हमेशा सतर्क रहना होगा। वरना कानून बेअसर रहेंगे। अगर ऐसा हो पाता है तभी हालात कुछ सुधरेंगे। राजनीतिक दलों की नौटंकी से नहीं।-विनीत नारायण


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