‘मोदी व उनके सलाहकार किसानों की दुर्दशा के प्रति असंवेदनशील क्यों’

punjabkesari.in Friday, Jan 08, 2021 - 05:52 AM (IST)

तीन नए कृषि सुधार कानूनों को लेकर बने गतिरोध को सुलझाने के लिए केंद्रीय मंत्रियों तथा प्रदर्शनकारी किसान यूनियनों के बीच वार्ता का एक अन्य दौर असफल हो गया है। दोनों पक्ष अपनी स्थितियों पर अड़े हुए हैं तथा एक-दूसरे पर अडिय़ल रवैये का आरोप लगाया है जबकि केंद्र कानूनों पर विशेष चिंताओं पर चर्चा करना चाहता है जबकि किसान उनके पूरी तरह वापस लेने की अपनी मांग जारी रखे हुए हैं। 

वार्ता का अगला दौर 8 जनवरी को निर्धारित है। जब तक प्रधानमंत्री मोदी की सरकार किसानों की दो प्रमुख मांगों-नवगठित कानूनों को वापस लेने तथा न्यूनतम समर्थन मूल्य पर बेहतर समझ नहीं दिखाती हम वार्ता के परिणामों बारे सुनिश्चित नहीं हो सकते। यहां तक कि सुप्रीमकोर्ट ने भी इस तथ्य पर अफसोस जताया है कि ‘स्थिति में कोई भी सुधार नहीं हुआ’। 

किसानों की प्रशंसा में यह अवश्य कहा जाना चाहिए कि सारे उत्तर भारत में वर्षा तथा शीत लहर के बावजूद केंद्र के कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों का आंदोलन राष्ट्रीय राजधानी की सीमाओं पर मजबूती से खड़ा है। यह भारत द्वारा दशकों के दौरान देखी गई सबसे बड़ी हड़तालों में से एक है। देश में करोड़ों किसान हैं तथा उनके अपने विचार हैं। उनके हित कानूनों के लाभों अथवा हानियों से जुड़े हुए हैं। सरकार को किसानों के हितों को प्रोत्साहित करने के लिए पूरी तरह से निष्ठावान होना होगा। भारत में 500 किसान यूनियनें हैं तथा उनके साथ लापरवाहीपूर्ण रवैया नहीं अपनाया जा सकता जैसा कि वर्तमान भाजपा सरकार ने किया है। यह दिखाता है कि भाजपा अभी भी व्यापारियों की पार्टी का अपना पुराना राजनीतिक ठप्पा ढो रही है। 

इस बात की प्रशंसा की जानी चाहिए कि काफी हद तक किसानों की यूनियनों ने प्रमुख राजनीतिक दलों से दूरी बनाए रखी है। जहां तक भारतीय किसान यूनियन की बात है तो यह एक नया दृष्टांत नहीं है क्योंकि इसने हमेशा किसी भी समकालीन सत्ता अधिष्ठान के खिलाफ एक दबाव समूह के तौर पर कार्य किया है। निश्चित तौर पर कुछ राजनीतिक समूह इससे कुछ लाभ उठाने का प्रयास कर रहे हैं लेकिन सफल नहीं हो पाए। 

किसानों के प्रदर्शन स्थल स्पष्ट दर्शाते हैं कि किसानों की उपस्थिति न केवल पंजाब तथा हरियाणा से है बल्कि कई राज्यों से है। यहां तक कि सुदूर केरल से भी। दिलचस्प बात यह है कि इसने भाजपा के मीडिया तथा सूचना संगठनों की विश्वसनीयता को प्रभावित किया है। जो है उसे वैसा ही रहने दें। 

किसानों का आंदोलन प्रत्येक दिन के साथ गति पकड़ता जा रहा है क्योंकि नई दिल्ली की 5 सीमाओं पर एक तरह से प्रदर्शनकारियों ने कब्जा कर लिया है। वे न केवल कड़ाके की ठंड बल्कि राज्य की अवांछित चौकसी को भी झेल रहे हैं। इतनी ही अफसोस की बात किसानों के साथ विभिन्न राज्यों की पुुलिस तथा कानून लागू करने वाली एजैंसियों द्वारा किया गया व्यवहार है। उन्होंने प्रदर्शनकारी किसानों को दिल्ली में प्रवेश करने से रोकने के लिए निर्दयतापूर्वक  वाटर कैनन्स, डंडों तथा आंसू गैस का इस्तेमाल किया। 26 नवम्बर को उनकी राष्ट्रव्यापी हड़ताल के लगभग 25 करोड़ समर्थक बताए जाते हैं। यहां तक कि 1.40 करोड़ ट्रक ड्राइवरों का प्रतिनिधित्व करने वाली परिवहन यूनियनें भी उनके समर्थन में आ गई हैं। 

चाहे हम पसंद करें या नहीं, किसानों के आंदोलन के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर समर्थन भी काफी प्रभावशाली हैं। यह कोई रहस्य नहीं कि किसान भारत में बड़े लम्बे समय से लक्षित तथा शोषित महसूस कर रहे हैं। नैशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक 1995 तथा 2019 के बीच 1995 से लेकर कुल 2,96,438 किसानों ने आत्महत्या की। यह भी ध्यान देने योग्य है कि कृषि क्षेत्र में काम करने वाले 10,281 लोगों ने अपने बढ़ते कर्जों तथा कम आय के कारण आत्महत्या कर ली थी। 

मेरा बिंदू साधारण है : प्रधानमंत्री मोदी तथा उनके सलाहकारों ने किसानों की दुर्दशा के कड़े तथ्यों को कैसे नजरअंदाज कर दिया? कैसे वे प्रदर्शनकारी किसानों की दुर्दशा के प्रति असंवेदनशील हो सकते हैं? मेरा मानना है कि प्रधानमंत्री मोदी खुद को कुछ व्यापारियों के हितों तथा मानसिकता द्वारा निर्देशित करने की इजाजत दे रहे हैं। यह देश के मुख्य कार्य अधिकारी के लिए एक खुशगवार संकेत नहीं है। उन्हें जमीनी स्तर से अपने तथ्यों को जोड़ कर उन्हीं के अनुरूप अपनी नीतियां बनानी चाहिएं। उनके प्रशासन का वर्तमान तरीका उनकी छवि अच्छी नहीं दिखा रहा और कुछ बड़े कार्पोरेट खिलाडिय़ों के कैदी के तौर पर उनका पर्दाफाश करता है। यही समय है कि प्रधानमंत्री मोदी अपने तरीकों में सुधार करें तथा खुद को किसानों के हितों में पुनॢवन्यासित करें जोकि भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं।-हरि जयसिंह 
 


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