घूंघट और बुर्के पर चर्चा, परम्पराओं को बचाने का सारा जिम्मा महिलाओं पर ही क्यों

punjabkesari.in Saturday, May 04, 2019 - 04:31 AM (IST)

घूंघट और बुर्का ऐसी जीवन शैलियां हैं जो पुरुषों और औरतों में भेदभाव के लिए खींची गई हैं। सदियों से परंपरा के नाम पर औरतें इन्हें ढोने को मजबूर हैं। और अब तो धार्मिक विमर्श ऐसा हो गया है कि अगर कहा जाए कि बुर्का औरतों की दोयम दर्जे की नागरिकता का प्रतीक है, तो कहा जाता है कि तुम्हें बुर्का दिखता है, अपना घूंघट नहीं। यानी कि हमारी औरतें बुर्के में ठीक हैं और तुम्हारी औरतें घूंघट में। प्राचीन कलाकृतियों को देखें तो किसी चित्र, किसी मूर्ति  में महिलाएं घूंघट निकाले नजर नहीं आतीं। 

लेकिन न जाने क्यों घूंघट और बुर्के को औरतों की शालीनता और परंपरा के निर्वाह के नाम पर चलाया जाता रहा है। आखिर परंपराओं को बचाने का सारा ठेका औरतों के जिम्मे ही क्यों है अथवा पुरुषों में असुरक्षा की भावना है कि वे किसी न किसी बहाने औरतों को अपनी कैद से आजाद नहीं होने देना चाहते। अफसोस इस बात को देख कर होता है कि अपने-अपने राजनीतिक स्वार्थ के कारण बहुत-सी औरतें जो पढ़ी-लिखी हैं, हर बात पर अपनी राय देती हैं, ट्वीट करती हैं, फेसबुक पर पोस्ट लगाती हैं, कई बार वे औरतों की दोयम दर्जे की नागरिकता का समर्थन करती नजर आती हैं और स्थान, शहर व अपने हित देखकर बयान बदलती रहती हैं।

जे.एन.यू. की शहला रशीद दिल्ली में बेहद क्रांतिकारी थीं। वह होस्टलों में लड़कियों के आने-जाने के समय की पाबंदी की मुखर विरोधी थीं। दिल्ली विश्वविद्यालय में चलने वाले पिंजरा तोड़ आंदोलन की अगुवा थीं। ऐसी टी-शर्ट पहनती थीं जिस पर लिखा होता था कि मैं आजाद, आवारा, बिगड़ी हुई लड़की। मगर जब कश्मीर में उन्होंने पूर्व आई.ए.एस. अफसर शाह फैजल की पार्टी ज्वॉइन की तो प्रैस कांफ्रैंस में माथे तक सिर ढके नजर आईं। जब उनकी सोशल मीडिया पर भारी आलोचना हुई तो उन्होंने लिखा कि क्या उन्होंने कभी घूंघट और करवाचौथ की आलोचना की है। यानी कि उनके अनुसार सभी औरतें घूंघट निकालती हैं, अन्य धर्मों के सभी लोग घूंघट के समर्थक हैं और सभी औरतें करवाचौथ जिसे हिन्दी फिल्मों और धारावाहिकों ने देश भर में फैला दिया है, उसे मनाती हैं। 

सवाल तो यही है कि शहला रशीद आप घूंघट का विरोध करके तो देखतीं, पता चलता आपको कितना समर्थन मिलता है। जब हरियाणा सरकार ने अपने एक विज्ञापन में घूंघट को औरतों की अस्मिता और सम्मान का प्रतीक बताया था तो याद है, सरकार की कितनी आलोचना हुई थी। वैसे भी अब शहरों, यहां तक कि छोटे कस्बों तक में बड़ी संख्या में घूंघट की विदाई हो चुकी है क्योंकि पहनावे से साडिय़ां और दुपट्टे गायब हो चुके हैं। जब शहला और शबाना आजमी बेगूसराय में कन्हैया कुमार का प्रचार करने पहुंचीं, तब भी मंच पर वे माथे तक अपना सिर ढके नजर आईं। ये दोनों बड़ी भारी स्त्रीवादी हैं। खुद को वामपंथी भी कहती हैं लेकिन बेचारा स्त्रीवाद भी क्या करे जब लोगों को अपनी-अपनी बेडिय़ों में कैद करके वोट बटोरना हो। सुधार की बात नहीं, तुम जैसे हो, वैसे ही ठीक हो। बस वोट दे देना। मुम्बई, दिल्ली में अल्ट्रा माडर्न और बेगूसराय, कश्मीर में सिर ढके भारतीय नारी। 

बुर्के पर प्रतिबंध की बहस
श्रीलंका में हुए आतंकवादी हमले के बाद बुर्के पर प्रतिबंध की बहस शुरू हो गई। इससे पहले बहुत से पश्चिमी देश और कई इस्लामिक देश भी इस पर प्रतिबंध लगा चुके हैं। श्रीलंका से शुरू हुई बहस भारत में भी आ पहुंची। इससे पहले वोटों के वक्त कई भाजपा नेता कह चुके थे कि बुर्के में फर्जी वोटिंग हो रही है। बुर्के पर बहस शुरू हुई तो केरल की मुस्लिम एजुकेशन सोसाइटी जिसके अंतर्गत डेढ़ सौ से अधिक शिक्षा संस्थान चलते हैं, ने एक आदेश के तहत अपने सभी संस्थानों को निर्देश जारी किया कि कोई भी लड़की इन संस्थानों में बुर्का पहनकर न आए। और जो कहा वह दिलचस्प है-एम.ई.एस. के अध्यक्ष पी.ए. फजल गफूर ने कहा कि औरतों का मुंह ढकना इस्लाम में नहीं है। यह संस्कृति विदेशों से आई है। इसका धर्म से कुछ लेना-देना नहीं है। यह हमारी संस्कृति पर हमला है और केरल में बहुत फैलता जा रहा है। गफूर के बयानों की अभी से आलोचना होने लगी है। इस प्रसंग में बहुत पहले केरल के एक वाइस चांसलर का बयान याद आता है-उन्होंने कहा था कि युवा वर्ग अब इस्लाम में दिलचस्पी लेने लगा है। लड़कियां बड़ी संख्या में बुर्का ओढऩे लगी हैं। 

असदुद्दीन ओवैसी ने भी कहा कि अगर बुर्के पर प्रतिबंध लगाना हो तो घूंघट पर भी लगाइए। जावेद अख्तर ने भी यही कहा और मांग की कि राजस्थान में चुनाव से पहले घूंघट पर प्रतिबंध लगाया जाए। हाल ही में ए.आर. रहमान की लड़की जब बुर्के में दिखाई दी तो उन्होंने इसे उसकी च्वॉइस का मामला बताया। यदि कोई स्त्री अपनी मर्जी से बुर्का पहनती है या घूंघट डालती है तो यह उसकी आजादी है कि वह कैसे रहना चाहती है। लेकिन पुरुष वर्चस्व के झंडे और डंडे तले  बुर्का और घूंघट दोनों की अनिवार्यता, नि:संदेह औरतों की बेडिय़ां हैं। घूंघट और पर्दा प्रथा का विरोध हमारे यहां गांधी जी के जमाने से होता रहा है लेकिन औरतों को तरह-तरह के डर दिखाकर परंपरा के ध्वजवाहक इसे हटने नहीं देते। दुख इस बात का है, परंपरा के दोहन में वाम पंथी, दक्षिण पंथी सब एक नजर आते हैं।-क्षमा शर्मा


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