लोकसभा चुनाव की विश्वसनीयता कैसे बचाई जाए

punjabkesari.in Tuesday, Apr 02, 2024 - 05:42 AM (IST)

दिल्ली के ऐतिहासिक रामलीला मैदान में इस रविवार को ‘लोकतंत्र बचाओ’ बैनर तले ‘इंडिया’ गठबंधन की रैली में पारित एक अभूतपूर्व प्रस्ताव भारतीय लोकतंत्र के सामने एक बड़ा सवाल खड़ा करता है। इस रैली में उपस्थित देश के तमाम विपक्षी दलों के नेताओं ने सर्वसम्मति से एक पांच सूत्री मांग पत्र जारी किया, जो आगामी लोकसभा चुनाव में चल रही गड़बड़ी को रेखांकित करता है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने तो सीधे-सीधे इस चुनाव में ‘मैच फिक्सिंग’ का आरोप लगाया और कहा कि यह मैच फिक्सिंग भाजपा द्वारा कुछ बड़े कॉर्पोरेट घरानों की मदद से इसलिए की जा रही है ताकि सत्ताधारी दल संविधान को अपने मन माफिक बदल सके। 

आरोप संगीन हैं, जो सिर्फ विपक्षी पार्टियों या किसी बड़े नेता के बोल देने भर से सिद्ध नहीं हो जाते। लेकिन अगर देश के सभी बड़े विपक्षी दल एक मंच पर आकर आवाज उठाते हैं तो उसे सुनना और उसकी जांच कराना जरूरी हो जाता है। खास तौर पर इसलिए, चूंकि हमारे देश में भी विपक्षी पार्टियों द्वारा चुनावी प्रक्रिया पर सवाल उठाने का रिवाज नहीं है। कभी-कभार किसी विपक्षी नेता ने भले ही किसी चुनाव को फ्रॉड बताया हो लेकिन अमूमन चुनाव के बाद भी हारी हुई पार्टी ने चुनाव आयोग द्वारा घोषित परिणाम को जनादेश के रूप में स्वीकार कर सिर-माथे लिया है। इस मायने में भारतीय लोकतंत्र हमारे पड़ोसियों, जैसे बंगलादेश और पाकिस्तान तथा तीसरी दुनिया के तमाम देशों से अलग रहा है, जहां विपक्षी दल अमूमन चुनावी प्रक्रिया को जालसाजी बताकर चुनाव के आधिकारिक परिणाम को खारिज करते रहे हैं। रामलीला मैदान में जारी मांग पत्र एक खतरे की घंटी है कि कहीं हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था उसी दिशा में तो नहीं बढ़ रही। 

वैसे इस मांग पत्र की भाषा संयत, सुसंगत और संवैधानिक दायरे के भीतर है। विपक्षी दलों की पहली और बुनियादी मांग है कि ‘चुनाव आयोग को लोकसभा चुनावों में समान अवसर सुनिश्चित करने चाहिएं।’ यहां चुनाव आयोग पर कोई आरोप नहीं है लेकिन इशारा साफ है। जाहिर है, ऐसी किसी मांग की नौबत ही न आती अगर चुनाव आयोग अपना काम निष्पक्ष रूप से करते हुए दिखाई देता। लेकिन पिछले कुछ सालों से चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर बार-बार सवाल खड़े हुए हैं। हद तो तब हो गई जब सुप्रीम कोर्ट के फैसले की भावना को नजरअंदाज करते हुए सरकार चुनाव आयोग की नियुक्ति के बारे में एक कानून ले आई, उसके बाद चुनाव आयुक्त अरुण गोयल ने रहस्यमय तरीके से इस्तीफा दे दिया और फिर आनन-फानन में एक ही दिन में दो नए चुनाव आयुक्त बना दिए गए। जाहिर है, मैच शुरू होने से तुरंत पहले ही दो रैफरी बदलने की यह असाधारण कार्रवाई हर व्यक्ति के मन में शक पैदा करती है। 

यह सवाल खड़ा होता है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि सत्ताधारी दल चुनाव आयोग से कुछ ऐसा काम करवाना चाहता था, जो पिछले आयोग के बदले बिना संभव नहीं था? अगर इस शक का निवारण नहीं होता तो यह नौबत भी आ सकती है कि बंगलादेश की तरह भारत में भी यह मांग उठे कि चुनाव आयोग को सुप्रीम कोर्ट की देखरेख में चुनाव करवाने पड़ें। 

दूसरी मांग है : ‘चुनाव आयोग को चुनाव में हेराफेरी करने के उद्देश्य से, विपक्षी राजनीतिक दलों के खिलाफ इंकम टैक्स, ई.डी. और सी.बी.आई. द्वारा की जाने वाली बलपूर्वक कार्रवाई को रोकना चाहिए।’ यह मांग इस चुनाव में ही सरकार द्वारा जांच एजैंसियों के असाधारण दुरुपयोग को रेखांकित करती है। सत्तारूढ़ दल द्वारा इन एजैंसियों का अपने फायदे के लिए इस्तेमाल मोदी के सत्ता में आने से पहले भी होता रहा है, लेकिन इन सब एजैंसियों द्वारा इतनी बेशर्मी से केवल विपक्षी दलों के नेताओं के पीछे पडऩा और चुनावी आचार संहिता लगने के बाद भी विपक्षी नेताओं पर छापे, एफ.आई.आर. और गिरफ्तारी का सिलसिला अनवरत चलते रहना भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में अभूतपूर्व है। 

इस एकतरफा राजनीतिक प्रतिशोध की कार्रवाई के सबसे बड़े दो नमूने अगली मांग में अभिव्यक्त किए गए हैं- ‘श्री हेमन्त सोरेन एवं श्री अरविंद केजरीवाल की तत्काल रिहाई की जाए।’ यहां सवाल यह नहीं कि विपक्षी नेताओं या किसी मुख्यमंत्री के खिलाफ भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों की जांच होनी चाहिए भी या नहीं। जाहिर है, कोई भी व्यक्ति कानून से ऊपर नहीं हो सकता। मुख्यमंत्री हों या प्रधानमंत्री, जांच सबकी होनी चाहिए। सवाल यह है कि क्या शरद रैड्डी जैसे किसी व्यक्ति के भी संदेहास्पद बयान के आधार पर किसी को आरोपी बनाया जा सकता है? अगर आरोप है भी, तब भी यहां क्या ऐसे व्यक्ति को गिरफ्तार करने की जरूरत है, जिसके भगौड़ा होने या फिर सबूतों को नष्ट करने की कोई गुंजाइश न हो? अगर गिरफ्तार भी करना हो तो चुनावी प्रक्रिया के बीच में करने की क्या जरूरत है? और अगर एजैंसियों को जब चाहे जिसे भी गिरफ्तार करने का अधिकार है तो भाजपा के सैंकड़ों नेताओं को गिरफ्तार क्यों नहीं किया जा रहा, जिनके खिलाफ इससे भी ज्यादा संगीन आरोप हैं? 

चौथी मांग इससे जुड़ी एक और प्रतिशोध की कार्रवाई के बारे में है, जिसने इस चुनाव में मैच फिक्सिंग के आरोप को गंभीर बना दिया है- ‘चुुनाव के दौरान विपक्ष के राजनीतिक दलों का आॢथक रूप से गला घोंटने की जबरन कार्रवाई तुरंत बंद होनी चाहिए।’ चुनाव शुरू होने से कुछ ही दिन पहले इंकम टैक्स डिपार्टमैंट ने जिस तरह कांग्रेस पार्टी के पुराने अकाऊंट खोलकर उसका अकाऊंट फ्रीज कर उस पर अब तक लगभग 3 हजार करोड़ रुपए का जुर्माना लगा दिया है, उसका एक ही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि हो न हो, यह चुनाव में देश के प्रमुख विपक्षी दल को पंगु बना देने की साजिश है। पांचवीं मांग यह है कि जहां वास्तव में जांच होनी चाहिए, वहां जांच की जाए- ‘चुनावी बांड का उपयोग करके भाजपा द्वारा बदले की भावना, जबरन वसूली और मनी लांड्रिंग के आरोपों की जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में एक एस.आई.टी. गठित की जानी चाहिए।’ 

ये सब मांगें गंभीर हैं और इन्हें आधारहीन नहीं कहा जा सकता। फिलहाल ऐसा नहीं लगता कि चुनाव के दौरान सरकार या चुनाव आयोग में से कोई भी इन मांगों पर कार्रवाई करने जा रहा है। ऐसे में चुनाव के परिणाम की विश्वसनीयता पर सवाल उठना लाजिमी है। यह सवाल भी उठ सकता है कि अगर चुनावी मैच पहले से फिक्स है तो क्या विपक्ष को उसमें हिस्सा भी लेना चाहिए? कहीं ऐसे चुनाव में हिस्सा लेकर विपक्ष इस पूरी प्रक्रिया को वैधता प्रदान तो नहीं कर रहा? फिलहाल रामलीला मैदान से पास हुआ यह मांगपत्र बहुत संयम दिखाते हुए चुनावी बायकॉट जैसी किसी बात का जिक्र या इशारा तक नहीं करता। बस इतना कहता है कि ‘भाजपा शासन द्वारा पैदा की गई अलोकतांत्रिक बाधाओं के बावजूद ‘इंडिया’ गठबंधन लडऩे, जीतने और हमारे लोकतंत्र को बचाने के लिए दृढ़ और आश्वस्त है।’ लेकिन यह तो तय है कि बात निकली है तो दूर तलक जाएगी।-योगेन्द्र यादव
 


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