शराबनोशी राष्ट्रीय चुनाव में ‘मुद्दा’ क्यों नहीं बनती

punjabkesari.in Thursday, Jan 24, 2019 - 04:05 AM (IST)

अगर औरतों को इस देश में एक दिन के लिए राजपाट मिल जाए तो वे क्या फैसला करेंगी? आप जब- जहां चाहे औरतों के समूह से यह सवाल पूछ लीजिए, आपको एक ही जवाब मिलेगा, लेकिन हमारे लोकतंत्र में वह मुद्दा राष्ट्रीय चुनाव का मुद्दा क्यों नहीं बनता? 

तीन अलग-अलग मौकों पर यह सवाल मेरे सामने मुंह बाए खड़ा हुआ था। पिछले साल कर्नाटक के चुनाव में मैं मांड्या जिले में प्रचार करने गया था। महिला समर्थकों के समूह से बात कर रहा था। किसान की आय बढ़ाने के अधिकार की वकालत कर रहा था। महिलाएं सहमत थीं लेकिन उत्साहित नहीं। मैंने कारण जानना चाहा तो जवाब सीधा था— ‘घर में और पैसा आने से क्या होगा? और बोतल आ जाएगी। हमारा कष्ट और बढ़ जाएगा।’ 

पिछले साल ही हरियाणा के रेवाड़ी जिले में स्वराज पदयात्रा करते हुए मैंने इस मुद्दे की गहराई को समझा था। महिलाएं खेती-किसानी के संकट के प्रति सजग थीं, पानी बचाने की बात ध्यान से सुनती थीं, लेकिन जब दारू का जिक्रआता था तभी उनके कान खड़े होते थे। शराब के ठेकों को हटाने की मांग लाऊडस्पीकर से सुनते ही महिलाएं घर से बाहर आती थीं, अपना दर्द सुनाती थीं। एक महिला ने झक मारकर मुझे कहा, ‘‘बेटा कोई ऐसा तरीका नहीं हो सकता कि हम बोतलों में जहर डलवा दें! एक ही बार में झंझट खत्म हो जाए!’’ 

तीसरी बानगी महाराष्ट्र के यवतमाल जिले की है। पिछले सप्ताह एक विशाल दारूबंदी रैली में हजारों महिलाएं यवतमाल में पहुंची थीं। हर महिला की अपनी दर्द भरी दास्तां थी। किसी ने पति खोया था तो किसी ने पुत्र। बंजारा समाज के टांडा में पिछले साल भर में 30 लोग शराब से मरे हैं। औरतें बताती हैं कि 10वीं क्लास में पढऩे वाले बच्चे शराब पीने लगे हैं। अगर औरत पैसा छुपाकर रखने की कोशिश करे तो मारपीट और कलह होती है। घर में पैसा नहीं तो दारू के लिए अनाज, बर्तन, साड़ी, जो हाथ में लगा बेच आएंगे। हर औरत की एक आंख दुख से गीली थी, दूसरी गुस्से से लाल थी। 

समाज शराब की लत में डूब रहा है
यह देश के हर प्रांत, हर गांव और हर मोहल्ले की कहानी है। शराब की लत में समाज डूब रहा है, जिंदगियां सिमट रही हैं, औरतें पिट रही हैं, बचपन सहम रहा है, परिवार बिखर रहे हैं, नई पीढ़ी बर्बाद हो रही है, लेकिन हमारे समाज के कर्णधार चुप हैं। सरकारें इस तत्परता से ठेके खोल रही हैं मानो वहां शराब नहीं दूध बंट रहा हो। 900  ठेके खोलने के बाद नेताजी एक नशा मुक्ति केंद्र का उद्घाटन कर हज भी कर लेते हैं। 

नतीजे हमारे सामने हैं। सन् 2005 से 2016 के बीच लगभग 10 साल में शराब की खपत दोगुनी हो गई है। फिलहाल देश में 1,200 करोड़ लीटर शराब पी जा रही है। हर साल लगभग 3 लाख लोग शराब के चलते बीमारी या एक्सीडैंट में मारे जा रहे हैं। देश के 10 प्रतिशत मर्दों को शराब के नशे की लत लग चुकी है। पिछले कुछ सालों में शराब के अलावा दूसरे नशों में भी तेजी से बढ़ौतरी हुई है। पंजाब और पूर्वोत्तर में नशे की समस्या ने एक विकराल स्वरूप ले लिया है। 

जैसे-जैसे शराब बढ़ रही है, वैसे-वैसे शराब के खिलाफ आंदोलन भी बढ़ रहे हैं। गांधीवादी आंदोलनों के प्रभाव के चलते गुजरात में शुरू से ही दारूबंदी रही है। 80 के दशक में आंध्र प्रदेश में महिलाओं का शराब विरोधी बड़ा आंदोलन हुआ। 90 के दशक में हरियाणा में कुछ साल के लिए शराबबंदी हुई। नीतीश कुमार ने पिछले चुनाव के बाद बिहार में शराबबंदी की घोषणा की। महाराष्ट्र के वर्धा जिले में पहले से शराबबंदी थी। पिछले कुछ साल में गढ़चिरौली और चंद्रपुर में भी शराब बंद की गई है, अब यवतमाल जिले में भी इसी मांग को लेकर आंदोलन चल रहा है। इन राज्यों के बाहर देशभर में शराब के खिलाफ महिलाओं के आंदोलन चल रहे हैं। 

पैसे और सत्ता का गठबंधन
लेकिन पैसे और सत्ता का गठबंधन नशा मुक्ति के सवाल को राष्ट्रीय सवाल बनने नहीं देता। शराब की लॉबी इतनी बड़ी और इतनी ताकतवर है कि उसके सामने न सरकार टिकती है, न पार्टी और न ही कोर्ट-कचहरी। एक अनुमान के अनुसार भारत में हर साल शराब की खपत कोई अढ़ाई लाख करोड़ रुपए की है। यानी कि शराब खरीदने में उतना पैसा खर्च होता है जितना सरकार देश के रक्षा बजट में लगाती है। सरकारें शराब की बंधक हैं क्योंकि राज्य सरकारों के पास टैक्स लगाने के बहुत कम रास्ते हैं। आबकारी टैक्स उसकी आय का एक बड़ा हिस्सा है। हरियाणा जैसे राज्य में तो शराब का पैसा सीधा पंचायत को देने की व्यवस्था भी हो गई है, इसलिए अब पंचायतें भी बंधक हैं। 

शराब से इस एक नंबर की कमाई के अलावा सरकार में ऊपर से नीचे तक, मंत्रियों से सरपंच तक लगभग हर स्तर पर शराब के ठेकेदार दो नंबर का पैसा बांटते हैं। पहले शराब के ठेकेदार नेताओं को पैसा देते थे, अब वे खुद चुनाव लडऩे लग गए हैं, एम.एल.ए., एम.पी. और मंत्री बनने लगे हैं। इसलिए पाॢटयां भी शराब के मामले पर चुप्पी साध जाती हैं या संभलकर बोलती हैं। स्वार्थ के इस गठबंधन का मुकाबला सिर्फ  एक बड़े जनांदोलन से ही किया जा सकता है। 

नशे के खिलाफ आंदोलन
नशे के खिलाफ राष्ट्रीय आंदोलन खड़ा करना आसान काम नहीं है। इतने बड़े स्वार्थ का मुकाबला करने के अलावा ऐसे आंदोलन की अंदरूनी दिक्कतें भी हैं। शराब के विरुद्ध आंदोलन अक्सर एक नैतिक भाषा का इस्तेमाल करते हैं जिससे शराब का उपभोग करने वाले और उसके शिकार लोग ऐसे आंदोलन के दुश्मन बन जाते हैं। दूसरी दिक्कत यह है कि नशा मुक्ति के आंदोलन अक्सर पूर्ण दारूबंदी की मांग करते हैं, लेकिन पूर्ण दारूबंदी का अनुभव देश में अच्छा नहीं रहा है। कहने को गुजरात में शराबबंदी है, लेकिन जब चाहे जो चाहे वहां बोतल उपलब्ध हो जाती है। 

जहां-जहां पूर्ण शराबबंदी लागू हुई वहां शराब की स्मगङ्क्षलग शुरू हुई और साथ में माफिया भी पैदा हुआ। इसलिए शराब के प्रकोप से बचाने के लिए नशा मुक्ति के आंदोलनों को पूर्ण दारूबंदी की मांग में सुधार करने की जरूरत है। दारू की बिक्री को पूर्णतया बंद करने की बजाय दारू की उपलब्धि को बहुत सीमित करना, शराब के ठेकों की संख्या में बहुत कमी करना, स्थानीय महिलाओं को दारू का ठेका बंद करवाने का अधिकार देना और शराब की लत के शिकार लोगों को नशा मुक्ति केंद्र और स्वास्थ्य सुविधाएं प्रदान करना कहीं बेहतर एजैंडा होगा। क्या आने वाले चुनाव में कोई भी पार्टी इसे अपने मैनीफैस्टो का हिस्सा बनाएगी? नहीं तो क्या कोई आंदोलन इस मुद्दे पर पार्टियों को कटघरे में खड़ा करेगा?-योगेन्द्र यादव


सबसे ज्यादा पढ़े गए

Recommended News

Related News