क्या कन्हैया भविष्य में ‘नेता’ बन पाएगा

punjabkesari.in Monday, Mar 07, 2016 - 01:20 AM (IST)

लाल नेहरू विश्वविद्यालय से आज तक कोई जननेता पैदा नहीं हुआ। ऐसा तो कोई बिल्कुल ही नहीं जिसका ध्यान तुरन्त आता हो। ऐसा नहीं है कि जे.एन.यू. के छात्र पढ़ाई के बाद दूर-दराज के इलाकों में राजनीति करने नहीं गए। बिल्कुल गए लेकिन वे चुनावी राजनीति के जरिए बहुत ऊपर तक नहीं आ सके।

उन नेताओं में कमियां हो सकती हैं, पर यह भी देखना चाहिए कि धन-बल और प्रचार तंत्र के आगे क्या वे टिक सकने की क्षमता रखते थे। जे.एन.यू. में राजनीति को समझने वाले एक से एक लोग या छात्र भले ही होंगे मगर जे.एन.यू. से निकलने  वालों को बाहर  के राजनीतिक समाज ने कम ही समझा है।

क्या कन्हैया आगे चल कर नेता बन पाएगा? कहीं वह समझौते की राजनीति का हिस्सेदार तो नहीं बन जाएगा? एक सज्जन ने मुझे मैसेज भेज कर अमिताभ बच्चन की फिल्म ‘मैं आजाद हूं’ की याद दिलाते हुए आशंका जताई है कि कहीं कन्हैया फंस तो नहीं जाएगा? कन्हैया को लेकर पूछे जाने वाले ये सवाल जायज हैं और इन सवालों से लगता है कि लोगों में नए नेता पैदा करने की भूख तो है मगर वे अपने अनुभव से डरे हुए हैं कि कन्हैया कहीं पुराने नेताओं जैसा तो नहीं हो जाएगा या घाघ नेता उसे निगल तो नहीं जाएंगे। यही हमारी जनता की खूबी है कि वह कई नेताओं को पैदा कर लोकतंत्र में शक्ति संतुलन बनाए रखना चाहती है। जनता कई नेताओं को पसंद करती है और नेता पैदा होने की संभावना को बहुत उम्मीद और आशंका से देखती है। 
 
कन्हैया अभी जे.एन.यू. से बाहर नहीं निकला है इसलिए उसके बारे में अंतिम भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। उसे अभी लम्बा इम्तिहान देना है और जो भी सोच है उसमें काफी बदलाव भी आएगा। आना भी चाहिए। लेकिन इस वक्त कन्हैया ने क्या हासिल किया और कन्हैया के जरिए जनता ने क्या हासिल किया? बेशक बड़ी संख्या में लोग अलग-अलग कारणों से कन्हैया से नाराज हैं, लेकिन उसे पसंद करने वाले भी कम नहीं। अब  आते हैं उस सवाल पर कि क्या कन्हैया नेता बन सकता है?
 
सशर्त जमानत पर रिहा होने के बाद कन्हैया जब जे.एन.यू. में आया तो उसका स्वागत करने वाले वे लोग ज्यादा थे जो वामपंथी पार्टी के नहीं थे। कन्हैया के बहाने पहली बार राजनीति में उनकी दिलचस्पी बनी थी। विश्वविद्यालय के भीतर और ताजा विवाद के बाद बाहर की दुनिया की राजनीति के प्रति उनका नजरिया बदला था। 
 
िकसी के नेता बनने की पहली शर्त यही होती है कि वह कितने लोगों को अपने तरीके या नए सवालों पर सोचने पर मजबूर कर देता है। मीडिया, प्रोफैसर और पत्रकारों के आने से पहले कन्हैया ने यह सीढ़ी पार कर ली थी। वह जिस संगठन का सदस्य है उसका जे.एन.यू. में कोई आधार नहीं है। बहुत सी छात्राओं  ने बताया कि उसकी बातों को सुनकर हमने अध्यक्ष पद के लिए वोट दे दिया जबकि बाकी पदों के लिए आइसा या अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के उम्मीदवारों को दिया।
 
एक ऐसा नेता जो अपने लिए एक दक्षिणपंथी संगठन ए.बी.वी.पी. और एक वामपंथी संगठन आइसा से वोट  ले लेता हो उसमें नेता के कुछ न कुछ गुण तो होंगे ही। जे.एन.यू. छात्र संघ के चुनाव के लिए अध्यक्ष पद के उम्मीदवार एक मंच पर आकर भाषण देते हैं। देर रात तक छात्र उनकी बातें सुनते हैं और सवाल-जवाब होता है। फिर तय करते हैं कि किसे वोट दिया जाएगा। 
 
कन्हैया अंग्रेजी नहीं बोलता है लेकिन अपनी हिन्दी से उसने उनके दिलों में जगह बना ली जो हिन्दी नहीं जानते थे। कन्हैया को सुनने वालों में बड़ी संख्या में दक्षिण और पूर्वोत्तर के छात्र थे। जाहिर है छात्र राजनीति के स्तर पर कन्हैया में नेतृत्व की क्षमता होगी। अब आते हैं कन्हैया की राजनीतिक समझ पर। मैंने उसका इंटरव्यू किया है और मेरी दिलचस्पी उसकी इसी समझ को लेकर टटोलने की थी। उसने वाम दलों के स्वरूप की भी आलोचना की और कहा कि उनकी बातें तो सही हैं मगर राजनीति के मैदान में लडऩे का तरीका सही नहीं है। 
 
कन्हैया ने साफ किया कि वह वामपंथ के अतिवादी रूप का समर्थन नहीं करता जिसे आम लोग नक्सलवाद कहते हैं। कन्हैया ने कहा कि हमें तमाम दलों की नौकरशाहियों को ढहा देना होगा। कन्हैया की इस बात से कांग्रेस, भाजपा और अकाली दल के कार्यकत्र्ता भी असहमत नहीं होंगे। पार्टियों के भीतर की नौकरशाही किसी कार्यकत्र्ता को नेता नहीं बनने देती है और वह पार्टी के नाम पर सिर्फ बड़े नेता के हित के लिए काम करती है। यही वह नौकरशाही है जिसने पाॢटयों के भीतर के लोकतंत्र को समाप्त कर दिया है।
 
कन्हैया की दूसरी बात रोचक लगी जब वह कहता है कि अधिकतम एकता नहीं हो सकती। न्यूनतम एकता  होनी चाहिए। जे.एन.यू. के लोग अंतॢवरोधों के मास्टर होते हैं। अंतॢवरोधों की इतनी गहराई में चले जाते हैं कि दो दोस्तों का रास्ता भी अलग हो जाता है। कन्हैया कह रहा है कि कुछ अंतॢवरोधों को नजरअंदाज कर आगे बढऩा होगा।
 
वह यह भी कहता है कि गरीब, किसान, आदिवासी और पिछड़ों के हक के बुनियादी सवाल पर वैचारिक एकता बनानी होगी। जिन्हें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से लडऩा है उन्हें कुछ छोड़कर दूसरे लडऩे वालों से  हाथ मिलाना होगा। इस उम्र में कन्हैया रणनीति को लेकर यह सब सोच रहा है। हो सकता है असफल ही हो जाए लेकिन नेता का गुण न होता तो ये सब बातें प्रैस में न कहता।
 
कई लोग कन्हैया को आज ही प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री के फ्रेम में देखना चाहते हैं। कई लोगों ने तो लिखना शुरू कर दिया कि कन्हैया जिस गरीबी को दूर करने की बात करता है वह समाजवाद है और हमें समाजवाद नहीं चाहिए, पूंजीवाद चाहिए। गरीब की बात करते ही ये लोग समाजवाद का डर दिखाने लगते हैं। पूरी दुनिया में बहस हो रही है कि आर्थिक उदारीकरण के दौर में एक प्रतिशत लोग ही अमीर हुए हैं। ज्यादातर लोग गरीब हो गए हैं। ये बातें कन्हैया ने नहीं कही हैं बल्कि पूंजीवाद के समर्थक अर्थशास्त्री कहते हैं जिन्हें नोबेल पुरस्कार मिला है। 
 
ऑस्कर पुरस्कार लेने के बाद लियोनार्दो डी कैप्रियो ने भी तो कहा कि उनका हौसला बढ़ाने की जरूरत है जो दुनिया में प्रदूषण फैलाने वालों के खिलाफ लड़ते हैं। प्रदूषण के कारण लाखों लोग गरीब हो रहे हैं। कन्हैया को पूंजीवाद का लैक्चर देने वालों ने ऐसा अभियान क्यों नहीं चलाया कि पचास-सौ उद्योगपतियों ने सरकारी बैंकों से कर्जा लेकर नहीं लौटाया तो उन्हें जेल भेजना चाहिए। उनकी सम्पत्ति की कुर्की होनी चाहिए। किसान कर्ज नहीं चुकाता तो उस पर बैंक और पुलिस टूट पड़ते हैं।
 
इसलिए कन्हैया नेता बनेगा या नहीं यह सवाल सतही जिज्ञासा से ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है। कन्हैया जो कह रहा है वह विचार किए जाने लायक है या नहीं वह ज्यादा जरूरी है। एक ऐसे समय में जब पूरा विपक्ष सत्ता के उस भय को ईमानदारी से व्यक्त नहीं कर पाता है तो लोग इधर-उधर देखने लगते हैं। कन्हैया और उसके साथियों को लम्बी अदालती लड़ाई लडऩी है। 
 
अंतर्विरोधों के कारखाने जे.एन.यू. में छात्र एकता कब तक बनी रह पाती है यह इम्तिहान भी कन्हैया और पूरे जे.एन.यू. को देना है। ऐसा न हो कि वाम दल अपने-अपने संगठन हित में अंतर्विरोधों को हवा देने लगें और कन्हैया अकेला पड़ जाए। नेता बनने के लिए जरूरी है कि हालात भी बना रहें। जे.एन.यू. का एक यह भी इतिहास रहा है कि वह लड़ाई तो छेड़ देता है मगर जीत नहीं पाता क्योंकि जे.एन.यू. अकेला लड़ता है, बाकी सब उससे लड़ते हैं।                     
 

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