विचाराधीन कैदियों के लिए जेल नहीं, बेल का नियम होना चाहिए

punjabkesari.in Thursday, Jul 14, 2022 - 03:56 AM (IST)

देश की क्षमता से अधिक भरी जेलों में सलाखों के पीछे बंद करीब 75 प्रतिशत कैदी ऐसे हैं जो विचाराधीन हैं और जो अपराधी साबित नहीं हुए और उनमें से अधिकतर को निर्णय सुनाए जाने के बाद आखिरकार बरी किए जाने की संभावना है। 

ऐसे मामले हैं जिनमें लोग अपराधी साबित नहीं हुए लेकिन उन्होंने अपनी युवावस्था तथा लम्बा समय जेलों में गुजारा, केवल इसलिए क्योंकि अभियोग पक्ष, जो आमतौर पर खुद राज्य होता है, ने अदालतों से याचना की होती है कि उन्हें जमानत न दी जाए जबकि खुद को बचाने के लिए आरोपी वकील की सेवाएं लेने में सक्षम नहीं होते। ऐसे अधिकतर आरोपियों पर अपेक्षाकृत मामूली आरोप होते हैं जैसे कि चोरी तथा छीना-झपटी। 

जेलों में सडऩे वाले दुर्भाग्यशाली वे होते हैं जो इस स्थिति में नहीं होते कि अपनी जमानत की राशि जमा करवा सकें तथा जमानतियों की व्यवस्था कर सकें अथवा अपने लिए वकीलों की फीस भरने में सक्षम न हों या जिन्हें अदालतों द्वारा किसी विशेष कारण से जमानत देने से इंकार कर दिया गया। 

हालांकि एक चीज अलग ही दिखाई देती है : उनमें से लगभग सभी गरीब तथा अनपढ़ पृष्ठभूमि से हैं। नैशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो (एन.सी.आर.बी) के नवीनतम आंकड़े के अनुसार 68 प्रतिशत विचाराधीन कैदी या तो अनपढ़ थे अथवा उन्होंने बीच में ही स्कूल छोड़ दिया था। एक अन्य उल्लेखनीय खोज यह थी कि लगभग 73 प्रतिशत विचाराधीन कैदी दलित, जनजातीय तथा अन्य पिछड़े वर्गों के सदस्य थे जबकि 20 प्रतिशत मुसलमान। दिल्ली, जम्मू-कश्मीर, बिहार, पंजाब तथा ओडिशा शीर्ष 5 राज्य हैं जिनमें सर्वाधिक विचाराधीन कैदी हैं। 

न्यायमूर्ति संजय किशन कौल तथा जस्टिस एम.एम. सुंदरेश पर आधारित सुप्रीमकोर्ट की एक पीठ ने सोमवार को कहा कि भारत को कभी भी एक ‘पुलिस राज्य’ नहीं बनना चाहिए जहां जांच एजैंसियां कालोनियल कॉल के अवशेषों की तरह काम करें। पीठ ने सरकार को अनावश्यक गिरफ्तारियों से बचने के लिए जमानत देने हेतु नए कानून बनाने पर विचार करने को कहा, विशेषकर ऐसे मामलों में जहां कथित अपराध के लिए अधिकतम दंड जेल में 7 वर्ष तक हो। 

यह संकेत देते हुए कि देश में जेलें विचाराधीन कैदियों से लबालब हैं, अदालत ने कहा कि पुलिस रोजमर्रा के आधार पर गिरफ्तारियां करती है और यहां तक कि जमानत के आवेदन खारिज करने से पूर्व न्यायिक अधिकारी अपना दिमाग इस्तेमाल नहीं करते। अदालत ने एक बहुत महत्वपूर्ण अवलोकन किया : कि अदालतें इसलिए जमानत देने से इंकार कर देती हैं क्योंकि जज यह महसूस करते हैं कि अभियोग पक्ष का मामला कमजोर था और अंतत: आरोपी को दोषमुक्त कर दिया जाएगा। इस तरह से यह आरोपी को एक विचाराधीन कैदी के तौर पर सजा देने का एक तरीका है। 

अदालत ने यह भी कहा कि आपराधिक मामलों में भारत में दोषसिद्धि की दर बहुत कम है। ‘हमें ऐसा लगता है कि जमानत आवेदनों पर एक नकारात्मक नजरिए से निर्णय लेने के दौरान यह कारक भी दिमाग पर भारी रहता है।’ यह धारणा देशभर में न्यायिक अधिकारियों के लिए आंखें खोलने वाली होनी चाहिए। यह कहते हुए कि कोड अथवा क्रिमिनल प्रोसीजर (सी.आर.पी.सी.) कानून मामूली संशोधनों के साथ स्वतंत्रता पूर्व काल का महज एक विस्तार है, अदालत ने सरकार से जमानत देने के लिहाज से एक कानून बनाने के लिए कहा। 

जनजातीय अधिकारों के लिए कार्यकत्र्ता 84 वर्षीय स्टैन स्वामी, जिनकी हिरासत में मौत हो गई थी जब उनका जमानत आवेदन अभी अदालतों में लम्बित था, कानून के दुरुपयोग का एक ऐसा ही उदाहरण है। अभी हाल ही में मोहम्मद जुबैर, जो फर्जी समाचारों का पर्दाफाश करते थे, को जमानत से इंकार करना तीव्र आलोचना का कारण बना। उन्हें एक ऐसे ट्वीट के लिए गिरफ्तार किया गया जो 4 वर्ष पहले किया गया था और वह भी एक बॉलीवुड फिल्म के दृश्य पर आधारित था। अब उन पर और कई मामले डाले जा रहे हैं जिनमें 6 योगीनीत उत्तर प्रदेश की पुलिस द्वारा हैं। 

विडम्बना यह है कि इस वर्ष के शुरू में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तथा भारत के प्रधान न्यायाधीश एन.वी. रमन्ना की अध्यक्षता में मुख्यमंत्रियों की एक कांफ्रैंस में विचाराधीन कैदियों की दयनीय स्थिति तथा हमारी न्याय प्रदान करने की घटिया प्रणाली के कई पहलुओं पर चर्चा की गई थी। प्रधानमंत्री ने कहा कि अधिकतर विचाराधीन कैदी ‘गरीब अथवा सामान्य परिवारों’ से हैं और उन्होंने राज्यों से अपील की कि जहां तक संभव हो उन्हें जमानत पर छोड़ दिया जाए। उन्होंने अप्रचलित हो चुके कानूनों को समाप्त करने की जरूरत पर भी बल दिया। 

उन्होंने कहा कि 1800 से अधिक कानूनों की अप्रचलित के तौर पर पहचान की गई है और जहां केंद्र ने 1450 ऐसे कानूनों को रद्द कर दिया है, राज्यों ने ऐसे केवल 75 कानून खत्म किए हैं। लोगों को जेल भेजने से रोकने के लिए कानून बनाने के अतिरिक्त यह भी महत्वपूर्ण है कि पुलिस, अभियोग पक्ष की एजैंसियों के साथ-साथ न्यायपालिका की मानसिकता में अवश्य बदलाव आना चाहिए।-विपिन पब्बी 
 


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