अदालत की सलाह को इस नजरिए से देख सकते हैं कि प्रयासों की कोई अंतिम सीमा नहीं होती

punjabkesari.in Saturday, Mar 25, 2017 - 09:26 PM (IST)

अयोध्या विवाद मामले में सर्वोच्च अदालत ने जो सलाह दी है, उसके मायने को समझना होगा। इससे कोई इनकार नहीं है कि पहले भी विवाद सुलझाने के लिए दोनों पक्षों के बीच कई बार बातचीत हो चुकी है, जो किसी नतीजे पर नहीं पहुंची। अब सर्वोच्च अदालत आपसी बातचीत से हल निकालने को कह रही है, तो उसकी सलाह को इस नजरिए से देख सकते हैं कि प्रयासों की कोई अंतिम सीमा नहीं होती।

राह कठिन जरूर है, पर असंभव नहीं है। अब सवाल यह है कि अदालत ऐसा क्यों कह रही है? मुकदमा कोई भी हो, अदालत आम तौर पर अपना फैसला सुना देती है। इस मुकदमे में आखिर ऐसा क्या है कि अदालत ने आपसी बातचीत से हल निकालने की सलाह दी है? क्योंकि अदालत यह अच्छी तरह जानती है कि आग जिन लोगों की लगाई हुई है, वही बुझाने का तरीका पूछ रहे हैं। अदालत यह भी जानती है कि फैसला चाहे जो भी होगा, वह सर्वमान्य नहीं होगा और इसीलिए पहले आपसी बातचीत की सलाह दी गई है। 

मेरा सवाल है कि क्या इतिहास के गर्त में समाधान होता है? क्या यह आस्थावानों की लड़ाई है? इतिहास से बदला लेने की फुर्सत किसे है? हां, अतीत से हम ये सीख ले सकते हैं कि गलतियां कहां हुई। याद कीजिए 1984 का वह वक्त, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या हुई थी। देश त्रासदी के दौर से गुजरा। सत्ता की बागडोर राजनीति के दांव-पेंच से अनजान राजीव गांधी के हाथों में आ गई। इसके बाद हुए आम चुनाव में सहानुभूति लहर चल गई और प्रचंड बहुमत से कांग्रेस की सत्ता में वापसी हुई। 

पार्टी को 404 सीटें मिल गई। 23 अप्रैल, 1985 को सर्वोच्च अदालत ने शाह बानो प्रकरण में प्रगतिशील फैसला सुनाया था। धर्म के कुछ ठेकेदारों के चक्कर में सरकार ने 1986 में संसद में कानून बनाकर अदालती फैसले को पलट दिया और पहली गलती वहीं हुई। सत्ता चला रहे लोगों के जो कान भरे गए थे, उसमें तनिक भी सच्चाई नहीं थी। मेरा तो यह भी मानना है कि उस वक्त अगर राजीव गांधी की सरकार के पास प्रचंड बहुमत नहीं, बल्कि काम चलाऊ बहुमत होता तो शाह बानो का फैसला पलटा नहीं जाता। 

बहरहाल, इस घटनाक्रम के बाद दोनों पक्षों में स्वयंभू बने बैठे लोगों में सक्रियता आ गई। सत्ता चला रहे लोगों को अब यह समझाया गया कि शाह बानो प्रकरण से हिंदू नाराज हैं। 1984 से लेकर 1989 के बीच कई घटनाक्रम हुए, जिनमें राम मंदिर का ताला खुलवाना भी शामिल था। मुस्लिम वोट बैंक ही नहीं, हिंदू वोट बैंक भी हो गया। एक सभा में राजीव गांधी ने कहा, %हम रामराज्य की स्थापना करेंगे।’ देश में स्थानीय स्तर पर दंगे-फसाद पहले भी होते थे, पर 1990 से 1992 के बीच राष्ट्रीय स्तर पर ध्रुवीकरण शुरू हुआ। बाबरी मस्जिद ध्वंस, मुंबई सीरियल ब्लास्ट से लेकर गोधरा तक इस कड़ी को जोड़कर देख सकते हैं। 

मुझे याद है कि बाबरी मामले के दोनों पक्षकार कभी एक ही टैक्सी से अयोध्या से लखनऊ मुकदमा लडऩे आते थे। साथ ही खाना खाते थे। धीरे-धीरे जहर फैलता गया और गांव-शहर सभी जगह दूरियां बढ़ती गई। वरना, रोजमर्रा की चुनौतियों से आम लोगों को फुर्सत कहां है? निदा फाजली के शब्दों में कहूं तो - %हिंदू भी मजे में है मुसलमां भी मजे में/इंसान परेशान यहां भी है वहां भी।’ आस्था है तो ईश्वर हर जगह है। ऐसे %परोपजीवी’, जो कि दूसरों के श्रम पर जीते हैं, उनका यह पेशा है। अयोध्या विवाद का वे हल नहीं चाहते, क्योंकि इनका धंधा चौपट हो जाएगा। ढोंग रचा रहे ये लोग असल में किसी के रहनुमा नहीं हैं। आखिर, तीन तलाक पर जब दर्जनों इस्लामिक देशों में पाबंदी है तो यहां खत्म करने में क्या परेशानी है? वहीं, जो आक्रामकता हम देख रहे हैं, वह हिंदू दर्शन में तो कहीं नहीं है। अदालत जानती है कि अयोध्या विवाद पर फैसले को जनता तो मान लेगी, पर नेता नहीं मानेंगे। राजनीति के घिनौने रूप से अदालत वाकिफ है।


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