हरियाणा में पहले से ही अल्प ‘वन क्षेत्र’ के सामने और संकट

punjabkesari.in Thursday, Feb 28, 2019 - 04:15 AM (IST)

हरियाणा, जिसे देश में पंजाब के बाद दूसरा सबसे कम वन क्षेत्र वाला राज्य होने का श्रेय प्राप्त है, स्पष्ट तौर पर रियल एस्टेट माफिया की शक्तिशाली लॉबी के दबाव में दिखाई देता है, जो वाणिज्यिक शोषण के लिए इसके द्वारा संरक्षित जमीन का इस्तेमाल करने हेतु पंजाब भूमि संरक्षण कानून (पी.एल.पी.ए.) को पूरी तरह से वापस लेने या उसमें संशोधन करने की मांग कर रहा है। 

जहां पंजाब राज्य में कुछ विशेष क्षेत्रों को बाहर करने के लिए कानून में कुछ संशोधन करने बारे विचार कर रहा है, वहीं हरियाणा सरकार ने आगे कदम बढ़ाने तथा चुनावों की पूर्व संध्या पर बड़े संशोधन करने का निर्णय किया है। यद्यपि राज्य में विधानसभा चुनाव इस वर्ष के अंत में होने हैं, यह इस बात का संकेत है कि इन्हें दो-तीन महीनों में होने वाले आम चुनावों के साथ ही करवा लिया जाएगा। 

संशोधन प्रस्ताव का असर
यदि कानून में संशोधन के प्रस्ताव की बात सिरे चढ़ती है तो दिल्ली के सबसे नजदीकी पड़ोसियों को सर्वाधिक असर महसूस होगा क्योंकि सारा गुरुग्राम, अधिकतर फरीदाबाद तथा मांगर बानी जैसे पारिस्थितिकीय रूप से संरक्षित क्षेत्र पी.एल.पी.ए. से बाहर हो जाएंगे। कानून का निर्माण पूर्ववर्ती अविभाजित पंजाब के पर्वतीय क्षेत्रों में हिमालय के निचले इलाकों की ढलानों को बचाने के लिए किया गया था। वर्षों के दौरान राज्य में भूमि से संबंधित कानूनों में कई संशोधन किए गए थे, जिनके परिणामस्वरूप अरावली की अधिकतर पहाडिय़ों को वन विभाग की बजाय राजस्व विभाग के अंतर्गत राजस्व भूमि के तौर पर वर्गीकृत किया गया। 

कानून में संशोधन का निर्णय हाल ही में राज्य के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर की अध्यक्षता में आयोजित मंत्रिमंडल की बैठक में लिया गया था मगर यह कदम नया नहीं है क्योंकि उनके पूर्ववर्ती कांग्रेस के भूपेन्द्र सिंह हुड्डा ने ऐसी ही एक कार्रवाई शुरू की थी जब वह सत्ता में थे। उनका तर्क यह है कि पी.एल.पी.ए. 100 वर्षों से भी अधिक पुराना कानून है, जिसमें कई खामियां थीं और वह विकास के रास्ते में बाधा बन रहा था। उन दोनों का तर्क यह है कि कानून का निर्माण अंग्रेजों द्वारा क्षेत्र में भविष्य के विकास को ध्यान में न रखते हुए किया गया था। उनका यह भी तर्क है कि इस कानून ने न तो जमीन की रिचाॄजग में मदद की और न ही वन क्षेत्र बढ़ाने में, जो इस कानून के मुख्य उद्देश्य दिखाई देते हैं।

भू-शार्कों की शक्तिशाली लॉबी
यद्यपि पर्यावरणविद् तथा जिन लोगों को इन चीजों की जानकारी है, उनका विचार है कि भू-शार्कों की एक शक्तिशाली लॉबी, जिसने जमीनों की बढ़ती कीमतों के मद्देनजर इन क्षेत्रों में जमीनों के बड़े-बड़े टुकड़े खरीद रखे हैं, कानून के मद्देनजर जमीन जारी करने के लिए सरकार पर दबाव बना रही है। उनके लिए पहाडिय़ों पर खनन तथा आवासीय तथा वाणिज्यिक इमारतें बनाने के लिए भूमि का इस्तेमाल करने के मद्देनजर यह क्षेत्र एक सोने की खान है। पर्यावरणविदों का कहना है कि कानून में किसी भी बड़े संशोधन से पारिस्थितिकी को दीर्घकालिक क्षति पहुंचेगी।

मगर हरियाणा सरकार क्षेत्र में प्रतिबंध हटाने के लिए इतनी उतावली है कि इसने यह दावा करते हुए गत वर्ष 6 जनवरी को राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण में एक शपथ पत्र भी दाखिल किया था कि अरावली के वृक्षारोपण वाले क्षेत्र ‘जंगल नहीं’ हैं। शपथ पत्र की पर्यावरणविदों ने कड़ी आलोचना की थी, जो इसे ‘गुमराह करने वाला’ बताते थे क्योंकि अरावली के वृक्षारोपण वाले क्षेत्र ‘गैर-मुमकिन पहाड़’ यानी गैर-कृषि जमीन के तौर पर दर्ज हैं और इन्हें ‘मानित वन’ समझा जाता है। शपथ पत्र में कहा गया है कि अरावली वृक्षारोपण क्षेत्र में गैर-वन गतिविधियों पर वन संरक्षण कानून 1980 के तहत क्लीयरैंस लागू नहीं होती। पर्यावरणविदों का कहना है कि यदि सरकार के दावों को स्वीकार कर लिया जाता है तो राज्य में पहले से ही अल्प वन क्षेत्र का लगभग 70 प्रतिशत हरित क्षेत्र के दायरे से बाहर चला जाएगा। 

कानून के अंतर्गत आते क्षेत्रों में निर्माण
इस सबके बावजूद वर्षों के दौरान पी.एल.पी.ए. के अंतर्गत चिन्हित क्षेत्रों के कई हिस्सों में बड़े निर्माणों की इजाजत दी गई है। उदाहरण के लिए आनंगपुर गांव क्षेत्र में एक विशाल कालोनी की इजाजत दी गई थी जिसकी जमीन का हरियाणा में 1970 के दशक में निजीकरण किया गया था। 

अब जबकि सैंकड़ों आवासीय घर बनाए जा चुके हैं, अधिकारियों को एहसास हुआ है कि क्षेत्र प्रतिबंधित जोन में आता है। उन्होंने क्षेत्र में अचानक निर्माण रुकवा दिया जिससे उन सैंकड़ों लोगों को झटका लगा है, जिन्होंने अभी आबंटित जमीन पर घर बनाने थे। यदि क्षेत्र को एक प्रतिबंधित जोन घोषित कर दिया जाता है तो अब इतने अधिक घरों को गिराना वास्तव में असम्भव है। यह महत्वपूर्ण है कि ऐसे अवास्तविक अवरोधों को हटाया जाए लेकिन यह और भी अधिक महत्वपूर्ण है कि पर्यावरणीय रूप से संवेदनशील अरावली पहाड़ी क्षेत्र में पारिस्थितिकीय संतुलन बनाए रखा जाए। बड़े पैमाने पर प्रतिबंध हटाने का परिणाम अव्यवस्था तथा पर्यावरण को बड़े नुक्सान के रूप में निकलेगा।-विपिन पब्बी
 


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