देश के शासक वर्ग की मौज-मस्ती पर लगनी चाहिए पाबंदी

punjabkesari.in Monday, Oct 17, 2016 - 01:57 AM (IST)

(विनीत नारायण): हाल ही में मोदी सरकार ने प्रशासनिक सुधारों की तरफ एक और कड़ा कदम उठाया है जिसके तहत केन्द्र सरकार के ऊंचे पदों पर रहे आला अधिकारियों को मिल रही वे सारी सुविधाएं वापस ले ली हैं जो वे सेवानिवृत्त होने के बावजूद लिए बैठे थे। मसलन चपरासी, ड्राइवर, गाड़ी आदि। इस तरह एक ही झटके में मोदी सरकार ने जनता का करोड़ों रुपया महीना बर्बाद होने से बचा लिया। इतना ही नहीं, भविष्य के लिए इस प्रवृत्ति पर ही रोक लग गई। 

वर्ना होता यह आया था कि हिन्दुस्तान के नौकरशाह किसी न किसी बहाने से सेवानिवृत्त होने के बाद भी अनेक किस्म की सुविधाएं अपने विभाग से स्वीकृत कराकर भोगते चले आ रहे थे। जाहिर है कि जो रवैया बन गया था वह रुकने वाला नहीं था बल्कि और भी बढऩे वाला था, जिस पर मोदी सरकार ने एक झटके से ब्रेक लगा दिया। पर अभी तो यह आगाज है, अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है।

केन्द्र की पूर्ववर्ती सरकारों ने पूर्व राष्ट्रपतियों, प्रधानमंत्रियों, उपप्रधानमंत्रियों व अन्य ऐसे ही राजनीतिक परिवारों को बड़े-बड़े बंगले अलॉट करने की नीति चला रखी है। यह  बहुत आश्चर्य की बात है कि जिस देश में आम आदमी को रोटी, कपड़ा, मकान जैसी बुनियादी जरूरतों को हासिल करने के लिए कठिन संघर्ष  करना पड़ता हो, उसमें जनता के अरबों रुपयों को क्यों इन पर खर्च किया जाता है? जबकि दुनिया के किसी सम्पन्न देश में भी कार्यकाल पूरा होने के बाद ऐसी कोई भी सुविधा राजनेताओं को नहीं दी जाती। 

नतीजतन भारत के राजनेता दोहरा फायदा उठाते हैं। एक तरफ तो अपने पद का दुरुपयोग करके मोटी कमाई करते हैं और दूसरी तरफ सरकारी सम्पत्तियों पर जिंदगी भर कब्जा जमाए बैठे रहते हैं जबकि उनके पास  पैसे की कोई कमी नहीं होती। डा. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम अकेले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने राष्ट्रपति का कार्यकाल पूरा होने के बाद सरकारी बंगला लेने से इंकार कर दिया। पर उन्हें भी किसी कानून का हवाला देकर उनकी इच्छा के विरुद्ध बंगला आबंटित किया गया।

इसी तरह कई प्रदेशों में राजधानियों में भी यही प्रवृत्ति चल रही है। हर पूर्व मुख्यमंत्री एक न एक सरकारी बंगला दबाए बैठा है। इस पर भी रोक लगनी चाहिए। मोदी जी और अमित भाई शाह कम से कम इतना तो कर ही सकते हैं कि भाजपा शासित राज्यों में इस नीति की प्रवृत्ति को खत्म करें। जैसे सरकार के अन्य विभागों में होता है कि सेवानिवृत्त होने के बाद ऐसी कोई सुविधा नहीं मिलती। इससे सरकार के खजाने की फिजूलखर्ची रोकी जा सकेगी और उस पैसे से जन कल्याण का काम होगा। वैसे भी यह वृत्ति लोकतंत्र के मानकों के विपरीत है। इस नीति के चलते समाज में भेद होता है जबकि कायदे से हर व्यक्ति को प्राकृतिक संसाधन इस्तेमाल करने के लिए समान अधिकार मिलना चाहिए। वैसे भी निजी क्षेत्र में काम करने वाले लोगों को ऐसी कोई रियायतें नहीं मिलतीं। 

समाजवादी विकास मॉडल के जुनून में पंडित नेहरू ने अंग्रेजों की स्थापित प्रशासनिक व्यवस्था को बदलने की कोई कोशिश नहीं की। नतीजतन हर आदमी सरकार से नौकरी और सुविधाओं की अपेक्षा करता है जबकि   होना यह चाहिए कि हर व्यक्ति सरकार पर निर्भर होने की कोशिश न करे, अपने पैरों पर खड़ा हो और अपनी जरूरत के साधन अपनी मेहनत से जुटाए। तब होगा राष्ट्र का निर्माण। सेवानिवृत्त होने पर ही क्यों, सेवाकाल में ही सरकारी अफसर जनसेवा के लिए मिले संसाधनों का जम कर दुरुपयोग अपने परिवार के लिए करते हैं। 

आजादी के 70 साल बाद भी देश की नौकरशाही अंंग्रेजी हुक्मरानों की मानसिकता से काम कर रही है। जिस जनता का उसे सेवक होना चाहिए उसकी मालिक बन कर बैठी है। इन अफसरों के घर सरकारी नौकरी की फौज अवैध रूप से तैनात रहती है। सरकारी गाडिय़ां इनके दुरुपयोग के लिए कतारबद्ध रहती हैं। इनकी पत्नियां अपने पति के अधीनस्थ अधिकारियों पर घरेलू जरूरतें पूरी करने के लिए ऐसे हुक्म चलाती हैं, मानो वे उनके खरीदे गुलाम हों। ये अधीनस्थ अधिकारी भी फर्शी सलाम करने में पीछे नहीं रहते। अगर मैडम खुश तो साहब के नाखुश होने का सवाल ही पैदा नहीं होता। ये लोग निजी यात्रा को भी सरकारी यात्रा बनाकर सरकारी तामझाम के साथ चलना पसंद करते हैं। 

जनसेवा के नाम पर सरकारी तामझाम का पूरे देश में एक ऐसा विशाल तंत्र खड़ा कर दिया गया है जिसमें केवल अफसरों और नेताओं के परिवार मौज लेते हैं। किसी विकसित देश में भी ऐसा तामझाम अफसरों के लिए नहीं होता। इस पर भी मोदी सरकार को नजर डालनी चाहिए। ऐसे तमाम बिन्दु हैं जिन पर हम जैसे लोग वर्षों से बेबाक लिखते रहे हैं, पर किसी के कान पर जूं नहीं रेंगी। अब लगता है कि ऐसी छोटी लेकिन बुनियादी बातों की ओर भी धीरे-धीरे मोदी सरकार का ध्यान जाएगा। भारत को अगर एक मजबूत राष्ट्र बनना है तो उसके हर नागरिक को सम्मान से जीने का हक होना चाहिए। वो उसे तभी मिलेगा जब सरकारी क्षेत्र में सेवा करने वाले अपने को हाकिम नहीं बल्कि सेवक समझें जैसे निजी क्षेत्र में सेवा करने वाला हर आदमी, चाहे कितने बड़े पद पर क्यों न हो, अपने को कम्पनी का नौकर ही समझता है। 
 


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